________________ 134 गुणस्थान विवेचन जब भावलिंगी मुनिराज के तीन कषाय चौकड़ी के अभाव के कारण वीतरागतारूप निश्चय चारित्र प्रगट होता है, तब देशघातिरूप संज्वलन कषाय एवं नौ नोकषायों का उदय रहता है; उस समय ही क्षायोपशमिक चारित्र घटित होता है। जब जीव के परिणाम/भावों में देशघाति कर्म का उदय निमित्त रहता है, तब ही जीव के क्षायोपशमिक भाव प्रगट होता है; ऐसा नियम है। यह नियम क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेदों में भी लागू होता है। ____ अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायकर्म - ये तीनों सर्वघाति होने से इनमें क्षयोपशम भाव की परिभाषा पूर्णतया घटित नहीं होती। अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अनुदय एवं प्रत्याख्यानावरण का उदय होने से औपचारिक क्षायोपशमिक माना गया है। - यही कारण है कि देशविरत गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र नहीं कहा है। काल अपेक्षा विचार - जघन्य काल - अंतर्मुहूर्त / मनुष्य या तिर्यंच जीव विरताविरत नामक गुणस्थानवर्ती हो जाता है और वह इस पंचम गुणस्थान में रहता है तो कम से कम अंतर्मुहूर्त काल ही रहता है; इससे कम काल में साधक इस गुणस्थान से अन्य गुणस्थानों में गमन नहीं करता है। जैसे - छठवें-सातवें गुणस्थान से लेकर उपशमश्रेणी के चारों गुणस्थानों का काल मरण की अपेक्षा एक, दो समयादि हो सकता है। सासादन का काल एक, दो समयादि हो सकता है; किन्तु पंचम गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त से कम हो ही नहीं सकता। उत्कृष्ट काल - मनुष्य की अपेक्षा गर्भकाल सहित आठ वर्ष व एक अंतर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष है तथा संमूर्च्छन तिर्यंच की अपेक्षा तीन अंतुर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष है। (धवला पुस्तक 4, पृष्ठ 366) मध्यम काल - यथायोग्य अंतर्मुहूर्त जघन्य काल में एक, दो, तीन आदि समयों को बढ़ाते-बढ़ाते एक अंतर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि वर्ष पर्यंत जितने-जितने भेद होते हैं, वे सर्व भेद देशविरति गुणस्थान के मध्यम काल के भेद समझना चाहिए।