________________ 155 प्रमत्तविरत गुणस्थान मुनिजीवन में सबसे पहले शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तविरत गुणस्थान की प्राप्ति होती है। तदनंतर सातवें गुणस्थान से ही सीधे क्षपकश्रेणी आरोहण करके मुक्त होने की व्यवस्था नहीं है। शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तविरत दशा में यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल व्यतीत होते ही पर्यायगत योग्यता के कारण तथा यथायोग्य कर्मोदय के निमित्त से शुभोपयोगरूप प्रमत्तविरत गुणस्थान में आना अनिवार्य रहता है। ___ मुनिअवस्था में मात्र एक अंतर्मुहूर्त रहकर ही मुक्ति प्राप्त करनेवाले भरत आदि को भी छठवें गुणस्थान में आना अनिवार्य ही था / अंतर्मुहूर्त में मुक्ति पानेवाले मुनिराज भी श्रेणी-आरोहण के पहले तैयारी की दशा में तो एक अंतर्मुहूर्त में हजारों बार छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलते हैं अर्थात् उन्हें भी छठवें गुणस्थान में आना पड़ता है, वे आना नहीं चाहते / मोक्षप्राप्ति के पहले का वस्तुगत क्रम ही ऐसा है / आगम प्रमाण से वस्तु का स्वरूप समझने से ज्ञान में यथार्थता एवं निर्मलता की प्राप्ति जरूर होती है। जगपंथ का अर्थ संसार का मार्ग है अर्थात् छठवें गुणस्थान का शुभोपयोगरूप भाव अर्थात् शुभपरिणाम बंधरूप होने से संसारमार्ग है। जैसे अग्नि में शीतलता की खोज व्यर्थ है, वैसे शुभ में वीतरागतारूप मोक्षमार्ग ढूँढना व्यर्थ है। 2. आचार्यकृत सभी शास्त्र-लेखन, उपदेश, दीक्षा-शिक्षा आदि प्रशस्त व्यवहार कार्य इस छठवें प्रमत्तविरत गुणस्थान में ही होते हैं। मुनिजीवन के छठवें गुणस्थानवर्ती महामुनिराज को संज्वलन कषाय तथा हास्यादि नौ नोकषायों के तीव्र उदय में नियम से हेय बुद्धिपूर्वक शुभ परिणाम होते ही हैं; क्योंकि मुनिजीवन में (स्थूलरूप से) अशुभोपयोग के लिए अवकाश ही नहीं है। अतः शुभ परिणाम में बुद्धिपूर्वक होनेवाले कार्य भी मोक्षमार्ग के अनुकूल ही होना चाहिए। ___ वास्तव में तो गृहस्थ-जीवन में जो कुछ शुभ परिणाम या पुण्यरूप कार्य होते हैं, वे सब अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषायों के मंद उदय में होते हैं और मुनिजीवन में शुभ परिणाम अथवा प्रशस्त/ पण्य कार्य नियम से संज्वलन कषाय और नौ नोकषायों के भूमिकानुसार तीव्र उदय में ही होते हैं।