________________ 152 गुणस्थान विवेचन क्योंकि ये दोनों गुणस्थानवी जीव मोक्षमार्गी हैं। शुद्धोपयोग के अभाव में भी उनको शुद्धपरिणति सतत बनी रहती है और शुद्धपरिणति को टिकाये रखने के लिए तथा उसे बढ़ाने के लिए एवं आनंद का भोग करने के लिए भी शुद्धोपयोग का पुरुषार्थ करते रहते हैं। यदि यथायोग्य काल के पश्चात् भी शुद्धोपयोग नहीं होगा तो उनके चौथा या पाँचवाँ गुणस्थान भी नहीं रहेगा; उन्हें मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति हो जावेगी; यह वस्तुस्वरूप है। इसलिए चौथे-पाँचवें गुणस्थान में जीव के पुरुषार्थ के अनुसार कदाचित् अशुभोपयोपयोग, शुभोपयोग अथवा शुद्धोपयोग होता है। छठवें गुणस्थान का स्वरूप ही अलग जाति का है। इस गुणस्थान का स्वरूप ही बुद्धिपूर्वक शुभोपयोगरूप है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती शुभोपयोगी भावलिंगी मुनिराज यदिशुद्धोपयोग करते हैं तो उनका गुणस्थान सातवाँ अप्रमत्तसंयत हो जाता है। शुद्धोपयोग से छूटते हैं/गिरते हैं, तो वे ही अप्रमत्त मुनिराज प्रमत्तसंयत अर्थात् शुभोपयोगी हो जाते हैं। किसी भी जीव को मोक्षमार्गी बने रहने के लिए भूमिकानुसार उसे वीतराग होना आवश्यक है / वह वीतराग भाव दो प्रकार से होता है - एक तो शुद्धोपयोग से और दूसरे शुद्धपरिणति से। ___छठवें गुणस्थान में वीतरागतारूप मोक्षमार्ग अर्थात् शुद्धपरिणति शुभोपयोग के साथ-साथ सतत रहती अवश्य है; पर छठवाँ गुणस्थान भावलिंगी मुनिराज का होने पर भी उसका स्वरूप ही व्यक्त शुभोपयोगरूप है; इसलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थान में शुभोपयोग ही होता है, शुद्धोपयोग नहीं। सातवें गुणस्थान में और उसके आगे के भी सभी गुणस्थानों में मात्र शुद्धोपयोग ही रहता है; अन्य कोई उपयोग होता ही नहीं। छठवें से मुनिजीवन है; इससे यह स्वयमेव निर्णय हो जाता है कि मुनिजीवन में मात्र दो ही उपयोग हैं - एक शुद्धोपयोग और दूसरा शुभोपयोग। हम द्रव्यानुयोग की अपेक्षा गुणस्थानों का विभाजन निम्नप्रकार कर सकते हैं - (1) मिथ्यात्व गुणस्थान से तीसरे मिश्र गुणस्थानपर्यंत नियम