________________ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान उत्तर : सामान्य कथन की अपेक्षा से दोनों को मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी एक ही कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक व्यक्त वीतरागता समान रहती है; तथापि शेष तीन कषाय चौकड़ी के मंद, मंदतर, मंदतम उदयानुसार तथा व्यक्तिगत पुरुषार्थ के अनुसार अंतर भी रहता है। चारित्र अपेक्षा विचार - सम्यग्दर्शन अकेला नहीं होता। उसके साथ ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् होते ही हैं। इतना ही नहीं आत्मा के अन्य अनंत गुणों में भी आशिक शुद्धता प्रगट होती है। सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व - ऐसा उल्लेख भी आगम में मिलता है। इसका भाव यह है कि सम्यक्त्व होने पर आत्मा के चारित्र आदि अनंत गुणों में सम्यक्पना नियम से हो जाता है। व्रतरूप संयम न होने से चौथे गुणस्थानवर्ती जीव को अविरत कहा है; फिर भी सम्यग्दर्शन का अविनाभावी अनन्तानुबंधी के अभावपूर्वक होनेवाला सम्यक्त्वाचरण/स्वरूपाचरण चारित्र तो होता ही है। अणव्रतों या महाव्रतों का पालन न होने से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को चरणानुयोग असंयमी कहता है। गुणस्थान यह विषय करणानुयोग का है और करणानुयोग इस सम्यग्दृष्टि को अविरत ही कहता है। ___ अब करणानुयोग की ही अन्य अपेक्षाओं से थोड़ा विचार करते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म की अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी का इस चौथे गुणस्थान में अनुदय क्षय है / इस कषाय चौकड़ी के अभाव से चारित्र गुण में आंशिक निर्मलता या अल्प वीतरागता यहाँ चौथे गुणस्थान में व्यक्त होती है। अत: चारित्र का बीज/अंश यहाँ प्रगट हो गया है / सूक्ष्म विषयों का कथन करनेवाले करणानुयोग शास्त्र की दृष्टि से सतर्क सिद्ध होने से यहाँ चारित्र प्रमाणित ही है। तथा इसके बाधक कारण (प्रत्ययों) का भी अभाव है। द्रव्यानुयोग की अपेक्षा भी चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र है ही। वस्तुतः तो स्वरूप में आचरण करना ही चारित्र है। इसी विषय को आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार ग्रंथ की गाथा क्रमांक सात की टीका में स्पष्ट कहा है - “स्वरूप में चरण करना (रमना) सो चारित्र है। स्वसमय में प्रवृत्ति करना (अपने स्वभाव में प्रवृत्ति करना) ऐसा इसका अर्थ है।” आचार्य श्री जयसेन ने भी कहा है --- शुद्धचैतन्य स्वरूप में चरण/ प्रवृत्ति/लीनता चारित्र है। 1. रहस्यपूर्ण चिट्ठी. पृ. 348 2. धवला पुस्तक 8, पृ. 26 3. निर्जरासार, पृ. 15