________________ 114 गुणस्थान विवेचन आचार्य कुंदकुंद ने इसे ही ‘सम्यक्त्वाचरण चारित्र' नाम दिया है। चौथे गुणस्थान में यदि आंशिक वीतरागता प्रगट हो गयी है तो चारित्र तो है ही। सम्यग्दर्शन का अविनाभावी या सहचारी होने से स्वरूपाचरण चारित्र को ही सम्यक्त्वाचरण चारित्र नाम दिया गया है। सिद्धों को अनंत अतीन्द्रिय सुख प्रगट हो जाता है। उनके अनंत सुख का अनंतवें भागरूप सच्चा सुख सम्यग्दृष्टि को भी प्रगट हो गया है; क्योंकि उसने अनंत संसार को आत्मस्वभाव के यथार्थ श्रद्धान से सीमित कर दिया है। करणानुयोग की अपेक्षा से भी अनंतानुबंधी चारित्रमोहनीय कर्म का अनुदयरूप अभाव होने से अर्थात् प्रतिबंधक कारण का अभाव होने से वीतरागता की अभिव्यक्तिरूप चारित्र सिद्ध होता ही है। सम्यक्त्वाचरणचारित्र शब्द का प्रयोग आचार्य श्री कुंदकुंद ने अष्टपाहुड ग्रंथ के चारित्र पाहड की गाथा 8 व 9 में किया है। अध्यात्मपुरुष श्री कानजीस्वामी स्वरूपाचरण चारित्र शब्द का प्रयोग इन गाथाओं के प्रवचनों में करते हैं। धवला पुस्तक एक पृष्ठ 165 में और पण्डित सदासुखदासजी कृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अनेक जगह स्वरूपाचरणचारित्र शब्द का प्रयोग आया है। गुरु गोपालदासजी बरैया ने जैन सिद्धान्त प्रवेशिका के क्रमांक 222 प्रश्न के उत्तर में स्वरूपाचरण चारित्र दिया है एवं प्रश्न 223 के उत्तर में स्वरूपाचरण चारित्र की परिभाषा बताई है। काल अपेक्षा विचार - ___चौथे गुणस्थान के इस प्रकरण में ही पहले सम्यक्त्व के काल का वर्णन किया है और अब यहाँ अविरतसम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान के काल विषयक स्पष्टीकरण किया जाता है। जघन्य काल - चौथे गुणस्थान का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है। चारों गतियों में जीव सम्यक्त्व की प्राप्ति कर सकता है। एक भव से अन्य भव में सम्यक्त्व लेकर जा भी सकता है। यदि कोई जीव एकदेश संयम या सर्वदेश संयम के बिना अर्थात् पाँचवें अथवा छठवें-सातवें आदि गुणस्थान के बिना मात्र सम्यग्दर्शन सहित चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में कम से कम काल रहे तो वह मात्र एक अंतर्मुहूर्त ही रह सकता है।