________________ 115 अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान एक अंतर्मुहूर्त से कम अर्थात् एक समय, दो, तीन, चार समय आदि अथवा एक आवली काल पर्यंत नहीं रह सकता है। यह अविरतसम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थानवी जीव के जघन्य काल का कथन हुआ। उत्कृष्ट काल - साधिक तेतीस सागर है। अनुत्तरवासी देवों में एक समय कम तेतीस सागर पर्यंत अविरतसम्यक्त्व अर्थात् चौथा गुणस्थान रहता है। अनुत्तरवासी देव स्वर्ग से च्युत होकर पूर्वकोटि वर्ष की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। वहाँ पर वे अंतर्मुहूर्त प्रमाण आयु के शेष रह जाने तक अविरतसम्यग्दृष्टि होकर रहे तो एक समय कम तेतीस सागर और अंतर्मुहूर्त कम कोटि पूर्व काल पर्यंत चौथे गुणस्थान का उत्कृष्ट काल होता है। (धवला पुस्तक 4, पृष्ठ : 347-348) इस अपेक्षा अविरतसम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर होता है। सातवें नरक में नारकियों की अपेक्षा छह अंतर्मुहूर्त कम तेतीस सागर काल अविरतसम्यक्त्व चौथे गुणस्थान का है। - धवला में इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है - मोह कर्म को अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखनेवाला एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। वह छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त होकर (1) विश्राम लेता हुआ (2) विशुद्ध होकर (3) वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण आयुकर्म की स्थिति के अवशेष रह पर पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। (4) वहाँ आगामी भव की आयु को बांधकर (5) अंतर्मुहूर्त काल विश्राम लेकर (6) निकला / इसप्रकार छह अंतर्मुहूर्त कम 33 सागर काल पर्यंत नरकगति में अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान रहता है। (धवला पुस्तक 4, पृष्ठ 359) मनुष्य तथा तिर्यंच गति की अपेक्षा अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान का काल अनुक्रम से साधिक तीन पल्य एवं तीन पल्य है। (सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ 41, 2) मध्यम काल - एक अंतर्मुहूर्त से लेकर साधिक तेतीस सागर काल के बीच में जितने भी भेद हो सकते हैं, वे सर्व अविरतसम्यक्त्व के चौथे गुणस्थान के मध्यम काल के प्रकार समझना चाहिए।