________________ 118 गुणस्थान विवेचन इसतरह तीर्थंकर होनेवाले युवक महावीर को भी द्रव्यलिंगपूर्वक ही भावलिंग हुआ है। इसतरह द्रव्यलिंग और भावलिंग का परस्पर सुमेल सब जीवों के लिए अनादि से है और आगे भी अनंत काल पर्यंत रहेगा; ऐसा समझना चाहिए। 40. प्रश्न : तीर्थंकर तो अपनी आठ वर्ष की उम्र में ही पंचम गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक हो जाते हैं; ऐसा हमने पार्श्वपुराण शास्त्र में पढ़ा है। उसका क्या तात्पर्य है ? / उत्तर : पार्श्वपुराण प्रथमानुयोग का शास्त्र है। वहाँ स्थूलरूप से सामान्य कथन किया है। आचार्यों ने बालक तीर्थंकर के आदर्श जीवन को प्रस्तुत करके साधक जीवों को उन जैसे जीवन बनाने के लिए प्रेरणा दी है। ___ वस्तुतः बात यह है कि तीर्थंकर आदि विशिष्ट पदवी धारक महापुरुषों के अणुव्रतरूप अल्प पुरुषार्थ नहीं होता। वे तो सीधे महाव्रतों को ही अंगीकार करते हैं; क्योंकि उनका पुरुषार्थ महान ही होता है। 41. प्रश्न : आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने अष्टपाहुड-भावपाहुड के गाथा 73 में तो प्रथम भावलिंग प्रगट करो, तदनंतर द्रव्यलिंग के स्वीकार करने की प्रेरणा दी है। उसका क्या अभिप्राय है ? उत्तर : आचार्यश्री ने उस गाथा में सम्यग्दर्शन को भावलिंग कहा है। मिच्छत्ताईं य दोस चइऊणं का अर्थ है मिथ्यात्वादि दोषों को छोड़कर / आचार्यश्री को वहाँ सम्यग्दर्शन अर्थ अभिप्रेत है / सम्यग्दर्शन के बिना मुनिपने का यथार्थ पुरुषार्थ प्रगट ही नहीं होता; अतः अनादिनिधन मार्ग तो यही है कि पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना और तदनंतर संयम धारण करना / मिथ्यात्व की ग्रंथि निकालना ही प्रथम दृष्टि की अपेक्षा ग्रंथिभेद है। आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने णग्गो ही मोक्खमग्गो नग्नता ही मोक्षमार्ग है; ऐसा स्पष्ट कहा है। 42. प्रश्न : फिर आचार्यश्री कुन्दकुन्द के वचनानुसार बाह्य नग्नता को ही मोक्षमार्ग और मुनिपना क्यों न मान लिया जाय ? तीन कषाय चौकड़ी के अनुदयरूप वीतरागता की क्या जरूरत है ?