________________ सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान की गई है। दूसरे, अनन्तानुबन्धी जिसप्रकार सम्यक्त्व के विघात में मिथ्यात्व प्रकृति का काम करती है, उसप्रकार वह मिथ्यात्व के उत्पाद में मिथ्यात्वप्रकृति का काम नहीं करती है। इसप्रकार की द्विस्वभावता को सिद्ध करने के लिए सासादन गुणस्थान को स्वतन्त्र माना है। दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है; जिससे कि सासादन गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता। तथा जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से दूसरे गुणस्थान में विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करनेवाला होने से चारित्रमोहनीय का भेद है। इसलिये दूसरे गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है। 4. शंका - अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबन्धक होने से उसे उभयरूप (सम्यक्त्वचारित्रमोहनीय) संज्ञा देना न्यायसंगत है ? समाधान - यह आरोप ठीक नहीं; क्योंकि यह तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् अनन्तानुबन्धी को सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबन्धक माना ही है। फिर भी परमागम में मुख्य नय की अपेक्षा इसतरह का उपदेश नहीं दिया है। ___ सासादन गुणस्थान विवक्षित कर्म के अर्थात् दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना उत्पन्न होता है, इसलिये वह पारिणामिक है। सासादन जो सम्यग्दृष्टि, वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। 5. शंका - सासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्राय से दूषित है, इसलिये उसके सम्यग्दृष्टिपना कैसे बन सकता है ? समाधान - नहीं; क्योंकि पहले वह सम्यग्दृष्टि था, इसलिये भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। कहा भी है - सम्यग्दर्शनरूपी रत्नगिरि के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्वरूपी भूमि के अभिमुख है, अतएव जिसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो चुका है; परंतु मिथ्यादर्शन की प्राप्ति नहीं हुई है, उसे सासन अर्थात् सासादनगुणस्थानवर्ती समझना चाहिए।