________________ 109 अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान अविरति में प्रवृत्ति हेयबुद्धि से रहती है तथा आगम अनुसार सदाचार तो अवश्य होता ही है। स्पर्शनादि पाँच इंद्रियों के विषय - स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दों में प्रवृत्त होना तथा यश, प्रसिद्धि आदि पापरूप विकल्पों में मन से प्रवृत्ति करना; इसे इंद्रियों और मन के विषयों में प्रवृत्ति कहते हैं। यह पाँच प्रकार की इंद्रियों और मन से संबंधित छह भेदरूप अविरति हो गयी। अविरत सम्यग्दृष्टि के जीवन में इसप्रकार छह प्रकार की अविरति तो पूर्वसंस्कारवश हेयबुद्धि से रहती ही है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों को पाँच स्थावर काय कहते हैं अर्थात् एकेंद्रिय जीवों को स्थावर कहते हैं। द्विइंद्रियादि से लेकर संज्ञी पंचेंद्रिय पर्यंत के सर्व जीवों को त्रस कहते हैं। पाँच स्थावरकाय और एक त्रसकाय - इसप्रकार षट्काय जीव हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इन छह काय जीवों की हिंसा को न चाहते हुए भी उनकी हिंसा से पूर्व संस्कारवश एवं अपनी कमजोरी के कारण विरत नहीं है। इसतरह सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रिय असंयम और प्राणी असंयम के कारण अविरत है। इस अविरति में अप्रत्याख्यानावरणकषाय कर्म का उदय भी निमित्तरूप रहता है। देखो परिणामों की विचित्रता ! सम्यग्दर्शन हो गया है, बीच-बीच में यथायोग्य कालावधि व्यतीत होने पर आत्मानुभव भी होता है। गृहीत तथा अगृहीत मिथ्यात्व का अभाव तो हो ही गया है। अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक आंशिक वीतरागता प्रगट हो गयी है। जीवन अन्याय, अनीति और अभक्ष्य से रहित है। अनंत संसार को सांत/सीमित किया है; तथापि बारह प्रकार की अविरति होते हुए भी मोक्ष की साधना करनेवाला साधक के पुरुषार्थ की कमी से यह जीव इंद्रियसंयम और प्राणीसंयम के अभाव के कारण अविरत ही है। ___ आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 26 में अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार भी दी है - . सत्तण्हं उवसमदो, उवसमसम्मो खयादु खइयो य। बिदियकसायुदयादो, असंजदो होदि सम्मो य||