________________ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान चौथे गुणस्थान का नाम अविरतसम्यक्त्व है। इस गुणस्थान की विस्तारपूर्वक चर्चा करने के पहले चौथे गुणस्थान में दर्शनमोहनीय कर्म का क्या निमित्तपना है; उसका स्पष्टीकरण करते हैं - (1) यदि जीव औपशमिक सम्यग्दृष्टि हो तो दर्शनमोहनीय की तीन, दो या एक कर्म प्रकृति का और चारित्रमोहनीय की अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क कर्म प्रकृति का - इसतरह सात, छह अथवा पांच प्रकृतियों का उपशम रहता है। (2) यदि जीव क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि हो तो मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का अप्रशस्त उपशम, दो दर्शन मोहनीय कर्म प्रकृतियों का क्षयोपशम अर्थात् सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम रहता है और देशघाति सम्यक्प्रकृति दर्शनमोहनीय कर्म का उदय रहता है। इतना विशेष है कि अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क, मिथ्यात्व एवं सम्यग्मिथ्यात्व ये छहों प्रकृतियाँ उदयावलि में तो रहती हैं; परंतु उदय से एक समय पूर्व स्तिबुक संक्रमण द्वारा यथायोग्य अन्य प्रकृतियों में संक्रमित होकर उदय में आती हैं। ___ (3) यदि जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो तो मिथ्यात्वादि तीन दर्शनमोहनीय और अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का क्षय रहता है। आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 29 में अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - णो इंदियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सदहदि जिणुत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो।।