________________ 110 गुणस्थान विवेचन __ अप्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के उदय से असंयत होने पर भी पाँच, छह या सात (अनन्तानुबन्धी की चार और दर्शनमोहनीय की तीन) प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की दशा में होनेवाले जीव के औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भावों को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं। __ प्रथम ‘अप्रत्याख्यान' शब्द का अर्थ करेंगे। 'अ' शब्द का अर्थ किंचित् / ‘प्रत्याख्यान' शब्द का अर्थ त्याग है। जो कषायकर्म किंचित् भी त्यांग न होने में निमित्त है, उसे अप्रत्याख्यानावरण कषायकर्म कहते हैं। जैसे - जीव जब अपने पुरुषार्थ की हीनता से किंचित् भी अर्थात् अणव्रतरूप भी संयमासंयम भाव प्रगट नहीं करता अथवा महाव्रतरूप संयमभाव भी प्रगट नहीं करता तब अप्रत्याख्यानावरणादि कषाय कर्मों का निमित्तरूप से उदय रहता ही है। ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव को अविरतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - ___ चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में नाना जीवों की अपेक्षा से औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक - ये तीनों सम्यक्त्व रह सकते हैं / एक जीव को एक समय में एक ही सम्यक्त्व रहता है। तीनों सम्यक्त्वों में यथार्थ श्रद्धारूप धर्म की अपेक्षा से समानता होने पर भी अन्य अपेक्षाओं से असमानता भी है। प्रथम समानता को कहते हैं - 1. तीनों ही सम्यक्त्वी के नवीन कर्मों के बंध की अपेक्षा से समानता है; तीनों सम्यक्त्वों में 41 प्रकृतियों का बंध नहीं होता। 2. तीनों सम्यक्त्वी मोक्षमार्गी होते हैं। 3. तीनों सम्यक्त्व में आत्मानुभव एवं आंशिक अतीन्द्रिय आनंद का वेदन भी होता है। अब असमानता को कहते हैं - प्रथम क्षायिक सम्यक्त्वी की विशेषता को बताते हैं - 1. क्षायिक सम्यक्त्व के पहले दो बार त्रिकरण परिणाम होते हैं। प्रथम त्रिकरण परिणाम द्वारा अनंतानबंधी चतुष्क का विसंयोजन होता है. फिर दर्शनमोहनीय के नाश के लिए त्रिकरण परिणाम होता है। जबकि औपशमिक सम्यक्त्व के लिए एक बार ही त्रिकरण परिणाम आवश्यक रहता है।