________________ 100 गुणस्थान विवेचन ___ अनेकांत का अर्थ यह है कि जिन धर्मों का जिस आत्मा में अत्यंत अभाव नहीं है, वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा युगपत पाये जा सकते हैं, इसप्रकार समीचीन और असमीचीनरूप इन दोनों श्रद्धाओं का क्रमशः एक आत्मा में रहना संभव है तो कदाचित् किसी आत्मा में एक साथ भी उन दोनों का रहना बन सकता है। यह सब कथन काल्पनिक नहीं है; क्योंकि मित्रामित्रन्याय से एक काल में और एक ही आत्मा में मिश्ररूप परिणाम हो सकते हैं। जिसप्रकार देवदत्त नामक किसी मनुष्य में यज्ञदत्त की अपेक्षा मित्रपना और चैत्र की अपेक्षा अमित्रपना ये दोनों धर्म एक ही काल में रहते हैं, उनमें कोई विरोध नहीं। इसीतरह सम्यक्त्व व मिथ्यात्व का मिश्रभाव भी आत्मा में रहता है। 30. प्रश्न : पांच प्रकार के भावों में से तीसरे गुणस्थान में कौनसा भाव है ? उत्तर : तीसरे गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव है। 31. प्रश्न : मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होनेवाले जीव के क्षायोपशमिक भाव कैसे संभव है ? उत्तर : संभव है; क्योंकि वर्तमान समय में मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय होने से और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान उत्पन्न होता है; इसलिए वह भाव क्षायोपशमिक ही है।" (सम्यग्ज्ञानचंद्रिका, पृष्ठ : 89) 32. “प्रश्न : तीसरे गुणस्थान में सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय भी है, फिर वहाँ औदयिक भाव क्यों नहीं कहा है ? / उत्तर : नहीं; क्योंकि मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जिसप्रकार सम्यक्त्व का निरन्वय पूर्ण नाश होता है; उसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का निरन्वय नाश नहीं पाया जाता। इसलिए तीसरे गुणस्थान में औदयिक भाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है।