________________ - अध:करणादि के कार्य - 1. अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क की विसंयोजना के समय अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण - ये तीनों करण नियम से होते हैं। 2. क्षायिक सम्यक्त्व के लिए अध:करणादि तीनों करण होते ही हैं। 3. उपशमश्रेणी के आरोहण के लिए अर्थात् चारित्र मोहनीय कर्मों की उपशामना के लिए अध:करणादि तीनों करण होते ही हैं। सातवें सातिशय अप्रमत्तविरत गुणस्थान में अध:करण होता है तथा आठवें और नववें गुणस्थान के नाम ही शेष दोनों करणों के अनुसार हैं। ___4. क्षपक श्रेणी के आरोहण के लिए अर्थात् चारित्र मोहनीय कर्मों की क्षपणा/क्षय के लिए अध:करणादि तीनों करण होते हैं। 5. यदि प्रशमोपशम सम्यक्त्व से मिथ्यात्व गुणस्थान में आये हुए जीव को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व शीघ्र प्राप्त करना हो, तो उसे अध:करण और अपूर्वकरण ये दो ही करण होते हैं। 6. देशचारित्र अर्थात् देशविरत गुणस्थान की प्राप्ति के लिए अध:करण और अपूर्वकरण - ये दो ही करण आवश्यक हैं / मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे पाँचवें देशविरत गुणस्थान में गमन करनेवाले को तीनों करण होते हैं। ____7. सकलचारित्र की प्राप्ति के लिए भी प्रथम व द्वितीय दो ही करण होते हैं। मिथ्यात्व से सीधे औपशमिक सम्यक्त्व के साथ अप्रमत्तविरत गुणस्थान में प्रवेश करनेवाले को अध:करणादि तीनों करण होते हैं। श्रेणी के गुणस्थानों के पहले चारित्र के लिए अलग अध:करणादि करण नहीं होते / सम्यक्त्व के लिए जो अध:करणादि करण होते हैं, उसी समय यथासंभव अविरत सम्यक्त्व, देशचारित्र या सकलचारित्र होते हैं / औपशमिक चारित्र तथा क्षायिक चारित्र के लिए ही श्रेणी के आरोहण काल में अध:करणादि तीनों करण होते हैं। इसतरह उपर्युक्त पाँच स्थान पर ही अध:करणादि तीन करण होते हैं। (आधार-लब्धिसार एवं जयधवला प्रथम पुस्तक) -