________________ सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान मिथ्यात्व गुणस्थान से यथासंभव ऊपर के गुणस्थानों में पुन: पुरुषार्थ करने से गमन करना संभव है। __आगमन - 1. औपशमिक सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी महापुरुष सीधे सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान में आ सकते हैं। 2. औपशमिक सम्यग्दृष्टि का देशविरत गुणस्थान से अर्थात् व्रती श्रावक अवस्था से सीधे सासादन सम्यक्त्वगुणस्थान में आना बन सकता है। 3. औपशमिक सम्यग्दृष्टि का अविरतसम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान से भी सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान में आना संभव है; क्योंकि औपशमिक सम्यग्दृष्टि ही सासादनसम्यक्त्वी हो सकते हैं, अन्य सम्यग्दृष्टि नहीं, यह अकाट्य नियम है। विशेष अपेक्षा विचार - 1. यदि सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान में रहते हुए किसी जीव का मरण होता है, तो वह जीव मरणोपरान्त नरकगति में नहीं जाता है; क्योंकि सासादनसम्यक्त्व का काल औपशमिक सम्यक्त्व का ही काल है और सम्यग्दृष्टि जीव (बद्धायुष्क न हो तो) नरक जाता ही नहीं है - यह नियमहै। 2. तीर्थंकर और आहारकद्विक की सत्ता सहित जीव सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान में जाता ही नहीं है। आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग नामकर्म - दोनों को आहारकद्विक कहते हैं। आहारक ऋद्धिधारी छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज को जिनवाणी के अध्ययन में किसी प्रकार की शंका उत्पन्न होने पर अथवा जिनालय की वंदना करने के लिये उनके मस्तक में से एक हाथ प्रमाण स्वच्छ, श्वेत, सप्तधातुरहित पुरुषाकार पुतला निकलता है; उसे आहारक शरीर कहते हैं। छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराजों को प्रयोजनभूत सात तत्त्व और द्रव्य- . गुण-पर्याय संबंधी शंका नहीं होती; क्योंकि इन विषयों का यथार्थ निर्णय तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पूर्व ही हो जाता है। जिनवाणी अगाध है और मुनिराजों का क्षायोपशमिक ज्ञान तो सीमित ही होता है, अत: अप्रयोजनभूत अनेक विषयों के संबंध में प्रश्न तो हो ही सकते हैं, उनके सहज समाधान के लिये यह प्रक्रिया सम्पन्न होती है।