________________ 14 गुणस्थान विवेचन आहारकद्विक की सत्तावाले मुनिराज विशिष्ट परिणाम के धारक होते हैं। अत: वे इस सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान में नहीं आते, ऐसा समझना चाहिए। 3. द्वितीय गुणस्थानवी जीव के सासादनसम्यक्त्वरूप भाव/परिणाम को पारिणामिक भाव भी कहते हैं; क्योंकि जीव का जो परिणाम कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा से रहित होता है, उसे पारिणामिक भाव कहते हैं / इस परिभाषा के अनुसार सासादन सम्यक्त्वरूप परिणाम दर्शनमोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा के बिना ही होता है। अतः दर्शनमोहनीयकर्म की अपेक्षा इस दूसरे गुणस्थान के भावै को पारिणामिक भाव भी कहते हैं। ___ मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान पर्यंत के चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा से हैं। दूसरे गुणस्थान में दर्शनमोहनीय के उदयादि की अपेक्षा नहीं हैं, अतः दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा यहाँ पारिणामिकपना घटित होता है। जहाँ जिस अपेक्षा से कथन किया हो, वहाँ उस अपेक्षा से समझ लेना चाहिए। * सासादन गुणस्थान का काल औपशमिक सम्यक्त्व का ही काल है। * मिथ्यात्वदर्शनमोहनीय परिणाम के निमित्त से प्रथम गुणस्थान में बन्धनेवाली सोलह कर्म प्रकृतियों का यहाँ बन्ध नहीं होता। * अनन्तानुबन्धी कषायरूप औदयिक परिणामों से बन्धनेयोग्य पच्चीस प्रकृतियों का यहाँ बन्ध होता है। पंडितप्रवर टोडरमलजी का सासादन गुणस्थान संबंधी सूक्ष्म चिंतन भी विशेष महत्त्व रखता है। अत: उनके शब्दों में ही हम आगे दे रहे हैं - मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 336 / / “यहाँ प्रश्न है कि अनन्तानुबन्धी तो चारित्रमोह की प्रकृति है, सो चारित्र का घात करे, इससे सम्यक्त्व का घात किस प्रकार सम्भव है ? समाधान - अनन्तानुबंधी के उदय से क्रोधादिरूप परिणाम होते हैं, कुछ अतत्त्वश्रद्धान नहीं होता; इसलिये अनन्तानुबन्धी चारित्र ही का घात करती है, सम्यक्त्व का घात नहीं करती। सो परमार्थ से है तो ऐसा ही; परन्तु