________________ 82 गुणस्थान विवेचन 17. प्रश्न : मुनिराज प्रमत्तसंयत गुणस्थान से मिथ्यात्व गुणस्थान में आते ही क्या कपड़े पहन लेते हैं ? क्या अपने घर में चले जाते हैं ? अथवा सरागी देवों की श्रद्धा करने लगते हैं ? उत्तर : भाईसाहब ! गुणस्थान की परिभाषा का आप पुनः अवलोकन करोगे तो ज्ञात होगा कि मोह और योग के निमित्त से श्रद्धा और चारित्र गुण की अवस्थाओं/पर्यायों को गुणस्थान कहते हैं। वहाँ कपड़े इत्यादि बाह्य परिग्रह को ग्रहण करने की बात ही कहाँ से आ गई ? ___ अंदर ही अंदर अर्थात् मोहोदय से अबुद्धिपूर्वक श्रद्धा तथा चारित्र गुणों के परिणमन में विपरीतता आ गयी है। परिणामों की शिथिलता से गुणस्थान गिर गया है। तत्काल वे अपने को बुद्धिपूर्वक संभालने का प्रयास करते हैं। दूसरों को किंचित् मात्र पता भी न चल पावे, इतने में ही वे पुनः सातवें गुणस्थान में भी प्रविष्ट होकर पूर्व अनुभूत अपूर्व आत्मानंद का रसास्वादन भी करने लगते हैं। वे महापुरुष हैं, अलौकिक महामानव हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें कपड़े पहनने या घर जाने का व खोटे देवों की आराधना में संलग्न होने का भाव भी नहीं आता। __ कोई साधारण साइकिल सवार साइकिल चलाते-चलाते जब गिर पड़ता है तो तुरंत उठने की कोशिश करता है या वहीं बिस्तर लेकर सो जाता है क्या ? 18. प्रश्न : अप्रमत्तादि उपरिम गुणस्थान से सीधे ही मिथ्यात्व गुणस्थानों में आगमन क्यों नहीं होता ? ___उत्तर : शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्त गुणस्थान से प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही मुनिराज का आगमन होता है। तदनन्तर ही अनेक मार्ग से निचले गुणस्थानों में गमन/पतन होता है। शुद्धोपयोग पूर्वक शुभोपयोगरूप छठवें गुणस्थान की प्राप्ति का ऐसा ही नियम है। प्रमत्तसंयत से सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान में हर एक मुनिराज का आना आवश्यक नहीं है / छठवें से पाँचवें, चौथे, तीसरे में और औपशमिक सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत हो तो दूसरे में तथा क्षायिकसम्यक्त्वी न हो तो पहले