________________ मिथ्यात्व गुणस्थान 2. अपने से सर्वथा भिन्न धन, धान्य, दुकान, मकान. पुत्र, मित्र, कलत्रादि में एकत्वबुद्धि को एवं प्रयोजनभूत सात तत्त्वों में विपरीत मान्यता को अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। 3. हम जीव हैं, तथापि जीव से सर्वथा भिन्न जड़स्वभावी शरीर को अपना माननेवाले बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि हैं। 4. जीव ज्ञानानंदस्वभावी होने पर भी उसे क्रोधादि विकारी भावों को स्वभावमय मानना मिथ्यात्व है। 5. जीव अनादि से ही अमूर्तिक एवं ज्ञानानन्दस्वभावी होने पर भी उसे मूर्तिक, अचेतन, मनुष्यादिरूप मानना मिथ्यात्व है। अपने को भूल करके शरीरादि पर पदार्थों में अहंकार, ममकार, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि भ्रमभाव रखना - ये सब मिथ्यात्व के चिह्न हैं। 6. (i) पुण्य-पाप भाव को धर्म मानना। (ii) मैं पर जीवों को मार सकता हूँ अथवा बचा सकता हूँ। (iii) पर जीव मुझे मार सकते हैं अथवा बचा सकते हैं / (iv) मैं अन्य जीवों को सुखी-दुःखी कर सकता हूँ अथवा अन्य जीव मुझे सुखी-दु:खी कर सकते हैं अथवा मेरा अकल्याण कर सकते हैं। (v) देव व गुरु मेरा कल्याण व अकल्याण भी कर सकते हैं। (vi) पर पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट मानना अर्थात् विश्व के कुछ पदार्थ अच्छे हैं अथवा कुछ पदार्थ बुरे हैं - इसतरह के सर्व अज्ञानजनित मान्यता नियम से तीव्र मिथ्यात्वरूप ही हैं; क्योंकि ये सब वस्तुस्वरूप से विरुद्ध हैं। आचार्य श्री नेमिचन्द्र स्वामी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 15 में मिथ्यात्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्च-अत्थाणं। एयंतं विवरीयं, विणयं संसयिदमण्णाणं / / दर्शनमोहनीय मिथ्यात्व कर्म के उदय के समय में अर्थात् निमित्त से होनेवाले जीव के तत्त्वार्थों के विपरीत श्रद्धानरूप भाव को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। उसके पाँच भेद हैं। जीव के मिथ्यात्व परिणाम में दर्शनमोहनीय कर्म के तीन अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्प्रकृतिरूप भेदों में से मिथ्यात्व