________________ गुणस्थान विवचन मिथ्याचारित्र के परिणमन में उपादान कारण चारित्र गुण की अपनी स्वयं की तत्समय की योग्यता भी वैसी ही होती है। जैसे - चारित्र गुण के संबंध में कहा है, वैसे ही ज्ञानादि सभी गुणों के परिणमन में भी समझ लेना चाहिए। काल अपेक्षा विचार - मिथ्यात्व का काल इसका अर्थ है, जितने समय पर्यंत जीव मिथ्यादृष्टि बना रहता है, वह मिथ्यात्व का काल है। 1. जघन्य काल - मिथ्यात्व का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त तभी बन सकता है, जब कोई सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्वी हो जाता है और अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत मिथ्यात्व परिणाम के साथ जीवन बिताकर पुनः सम्यग्दृष्टि हो जाता है। इस अंतर्मुहूर्त काल को मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य काल कहते हैं। इस गुणस्थान में कोई जीव एक, दो आदि समय से लेकर संख्यात, असंख्यात समय पर्यंत रहता ही नहीं। यदि मिथ्यात्व में आया है तो उसे कम से कम एक अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत रहना अनिवार्य है; क्योंकि मिथ्यात्व से छूटकर पुन: सम्यक्त्व प्राप्त करने में कम से कम एक अंतर्मुहूर्त काल का पुरुषार्थ आवश्यक है। 2. उत्कृष्ट काल - सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा यदि मिथ्यात्व गुणस्थान के उत्कृष्ट काल का विचार किया जाय तो मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट काल किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गल परावर्तन मात्र है। जब किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में से मात्र अंतर्मुहूर्त काल शेष रह जाता है, तब यह जीव पुनः पुरुषार्थ करके सम्यक्त्व और संयम को युगपत् धारण करके श्रेणी मांडकर केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध भगवान हो जाता है; ऐसा नियम है। 3. मध्यम काल - मिथ्यात्व गुणस्थान के यथायोग्य जघन्य काल अंतर्मुहूर्त में एक समय, दो, तीन, चार आदि समय मिलाकर अनेक भेद हो सकते हैं। फिर दो, तीन, चार अंतर्मुहूर्त और उनमें भी एक, दो आदि समय मिलाकर मध्यम काल के अनेक प्रकार हो सकते हैं। इसतरह किंचित् न्यून अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल पर्यंत जितने भी काल के भेद हो सकते हैं, वे सर्व मिथ्यात्व गुणस्थान के मध्यमकाल के भेद समझना चाहिए।