________________ महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर 4. उपयोगरूप (ज्ञान-दर्शन) वीतरागता को शुद्धोपयोग कहते हैं। शुद्धोपयोग के संबंध में अत्यंत संतुलित और स्पष्ट निम्न भाव पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र के पृष्ठ 286 पर दिया है - __“करणानुयोग में तो रागादि रहित शुद्धोपयोग यथाख्यात चारित्र होने पर होता है, वह मोह के नाश से स्वयमेव होगा; निचली अवस्थावाला (बारहवें क्षीणमोह और ग्यारहवें उपशांत मोह गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानवाले) शुद्धोपयोग का साधन कैसे करे ? तथा द्रव्यानुयोग में शुद्धोपयोग करने का ही मुख्य उपदेश है। ___ इसलिए वहाँ छद्मस्थ जिस काल में बुद्धिगोचर भक्ति आदि व हिंसा आदि कार्यरूप परिणामों को छोड़कर (श्रावक चौथे-पाँचवें गुणस्थानवी साधक) आत्मानुभवनादि कार्यों में प्रवर्ते, उस काल उसे शुद्धोपयोगी कहते हैं / यद्यपि यहाँ केवलज्ञानगोचर सूक्ष्म रागादिक हैं; तथापि उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की; अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोड़ता है, इस अपेक्षा से उसे चौथे, पंचमादि गुणस्थानों में शुद्धोपयोगी कहा है।" ____ मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ क्रमांक 285 पर कहा है ..... “धर्मानुरागरूप परिणाम वह शुभोपयोग, पापानुरागरूप व द्वेषरूप परिणाम वह अशुभोपयोग और राग-द्वेषरहित परिणाम वह शुद्धोपयोग।" 103. प्रश्न : शुद्ध परिणति किसे कहते हैं ? उत्तर : शुद्ध शब्द का अर्थ मोह, राग, द्वेष आदि विकारो भावों से रहित ऐसा वीतरागरूप परिणाम। * आत्मा के चारित्र गुण की शुद्ध पर्याय को शुद्धपरिणति कहते हैं। * बुद्धिपूर्वक शुभाशुभ उपयोग के काल में उपयोग रहित चारित्र गुण की वीतराग अवस्था को शुद्ध परिणति कहते हैं। 104. प्रश्न : अध:करणादि तीन करण कितने स्थान पर होते हैं ? उत्तर : औपशमिक एवं क्षायिक सम्यक्त्व के लिए, अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क की विसंयोजना के लिए और चारित्रमोहनीय के 21 प्रकृतियों की उपशमना तथा क्षपणा करने के लिए अध:करणादि तीनों करण होते हैं। (विशेष खुलासा मिथ्यात्व गुणस्थान के विभाग के अन्त में देखें।)