________________ गुणस्थान विभाजन 7. छद्मस्थ और सर्वज्ञ की अपेक्षा - प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान पर्यंत के बारह गुणस्थानवर्ती सर्व जीव नियम से छद्मस्थ ही हैं। मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ज्ञान के धारक मुनिराज भी नियम से छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञ ही हैं। तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानवर्ती परमगुरु अर्थात् अरहंत परमात्मा केवलज्ञान के धारक होते हैं; अतः वे सर्वज्ञ ही हैं। सर्वज्ञ जीव पूर्णज्ञानी होते हैं। क्षायोपशमिक ज्ञान कभी पूर्ण नहीं होता है और केवलज्ञान कभी अपूर्ण नहीं होता; ऐसा नियम है। 8. श्रावक की अपेक्षा- एकदेश धर्मधारक साधक जीव, अविरतसम्यक्त्वी और देशविरत गुणस्थानवी जीवों को श्रावक कहते हैं। चौथे गुणस्थानवर्ती असंयमी हैं और पंचमगुणस्थानवर्ती संयमासंयमी हैं। 9. गुरुपद की अपेक्षा - तीन प्रकार का विभाजन हो सकता है - (1) प्रमत्ताप्रमत्त गुरु - छठवें प्रमत्त एवं सातवें स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान में सतत झूलनेवाले भावलिंगी संत प्रमत्ताप्रमत्त गुरु हैं। (2) अप्रमत्त गुरु - सातवें सातिशय अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानपर्यंत श्रेणी में मोह की उपशामना या क्षपणा करनेवाले ध्यानारूढ़ महामुनिराज अप्रमत्त गुरु हैं। ___ (3) परमगुरु - तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानों में केवलज्ञानादि क्षायिक पर्यायों से तथा परम औदारिक शरीर सहित शोभायमान परम पवित्र आत्मा, जिसे अरहंत परमात्मा भी कहते हैं; वे परमगुरु हैं। 10. श्रेणी की अपेक्षा - श्रेणी दो प्रकार की है, उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। उपशमश्रेणी के (1) अपूर्वकरण (2) अनिवृत्तिकरण (3) सूक्ष्मसाम्पराय (4) उपशांतमोह ये चार गुणस्थान हैं। उपशमक मुनिराज चारित्र-मोहनीय का उपशम करते हैं और उपशांत मोह गुणस्थान से नियम से नीचे गिरते हैं। क्षपकश्रेणी के (1) अपूर्वकरण (2) अनिवृत्तिकरण (3) सूक्ष्मसाम्पराय और (4) क्षीणमोह ये चार गुणस्थान हैं। क्षपक मुनिराज चारित्र मोहनीय का