________________ गुणस्थान परिभाषा आचार्य श्री नेमिचन्द्रस्वामी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड की तीसरी गाथा में गुणस्थान की परिभाषा कहते हुए लिखा है - मोहजोगभवा अर्थात् मोह और योग से उत्पन्न होनेवाले को गुणस्थान कहते हैं। यहाँ आचार्यदेव ने मात्र निमित्तभूत कारणों का ही उल्लेख किया है; उपादान कारण को गौण रखा है। गुणस्थान को ही संक्षेप, ओघ और जीवसमास कहते हैं; जो मोह और योग से उत्पन्न होते हैं। निमित्त-प्रधान कथन पद्धति से हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि वक्ता की विवक्षा अभी निमित्त की मुख्यता से कथन करने की है। उपादान कारण को गौण किया है, अत: अभी निमित्तमलक कथन की अपेक्षा से मोहजोगभवा यह परिभाषा सत्य ही है। मात्र यहाँ अविवक्षित विषय को गौण ही रखा गया है। गुणस्थान के भेद : गुणस्थान के चौदह भेद निम्नलिखित हैं - 1. मिथ्यात्व, 2. सासादनसम्यक्त्व, 3. सम्यग्मिथ्यात्व/मिश्र, 4. अविरतसम्यक्त्व, 5. देशविरत, 6. प्रमत्तविरत, 7. अप्रमत्तविरत, 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृत्तिकरण, 10. सूक्ष्मसांपराय, 11. उपशांतमोह, 12. क्षीणमोह, 13. सयोगकेवली, 14. अयोगकेवली। चौदह गुणस्थानों के नाम क्रमानुसार सिद्धान्त-चक्रवर्ती आचार्यश्री नेमिचंद्र रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड की निम्नांकित 9 व 10 क्रमांक की गाथाओं में हैं - मिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरदो य। विरदा पमत्त इदरो, अपुव्व अणियट्टि सुहुमो य॥ उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य। चउदस जीव समासा कमेण सिद्धा य णादव्वा / / गुणस्थान : विभाजन मोह और योग की मुख्यता से गुणस्थानों का विभाजन - 1. पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान पर्यंत चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म के उदय-अनुदय की मुख्यता से हैं।