________________ 2 गुणस्थान विवेचन नियम से क्षय करके केवली भगवान होकर सिद्ध हो जाते हैं। 11. प्रमत्त तथा अप्रमत्त भाव की अपेक्षा - मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यंत छहों गुणस्थानवर्ती सर्व जीव नियम से प्रमत्तभाव सहित हैं। अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत के सर्व आठों गुणस्थानवर्ती मुनिराज अप्रमत्तभाव सहित हैं। 12. योग और अयोग की अपेक्षा - प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत के तेरह गुणस्थानवर्ती सर्व जीव सयोगी हैं और मात्र चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती अरहंत परमात्मा ही अयोगी हैं। 13. रागी और वीतरागी की अपेक्षा से तीन भेद होते हैं - (1) मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र पर्यंत तीनों गुणस्थानवर्ती जीव, वीतरागभाव से रहित मात्र रागादि परिणामवाले हैं, मोक्षमार्ग के विराधक हैं। (2) चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यंत के सातों गुणस्थानवी जीव राग तथा वीतरागरूप मिश्र परिणामों के धारक साधक जीव हैं। (3) ग्यारहवें गुणस्थान उपशांतमोह से लेकर अयोगकेवली पर्यंत के चारों गुणस्थानवर्ती सर्व महापुरुष नियम से पूर्ण वीतराग परिणाम के धारक ही होते हैं। 14. दुःख और सुख की अपेक्षा से चार प्रकार का विभाजन - (1) मिथ्यात्व से मिश्र गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव नियम से दुःखी ही हैं; क्योंकि मिथ्यादर्शन, अज्ञान और असंयम से जीव को दु:ख ही भोगना पड़ता है। यथार्थ वस्तुस्वरूप के ज्ञान से ही सुख की प्राप्ति होती है। (2) चौथे अविरतसम्यक्त्व नामक गुणस्थान से दसवें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यंत सात गुणस्थानवर्ती साधक जीव कथंचित् दुःखी भी हैं और कथंचित् सुखी भी हैं / कषाय के सद्भाव के कारण यथासंभव दु:ख है और यथायोग्य कषाय के अभाव से उत्पन्न वीतरागता से यथासंभव सुख भी है। (3) सत्ता रहते हुए भी कषाय का सर्वथा उदय का अभाव ग्यारहवें