________________ सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका 24. प्रश्न : यहाँ अन्यमती कहते हैं कि तुमने अपने ही शास्त्र के अभ्यास करने को दृढ़ किया। हमारे मत में नानः युक्ति आदि सहित शास्त्र हैं; उनका भी अभ्यास क्यों न कराया जाय ? / ____ उत्तर : तुम्हारे मत के शास्त्रों में आत्महित का उपदेश नहीं है। कहीं शृंगार का, कहीं युद्ध का, कहीं काम-सेवन आदि का, कहीं हिंसादिक के कथन हैं। ये तो बिना ही उपदेश सहज में ही हो रहे हैं; अत: इनको तजने से हित होता है। अन्यमत तो उलटा उनका ही पोषण करता है; इसलिए उससे हित कैसे होगा? 25. प्रश्न : वहाँ कहते हैं कि ईश्वर ने ऐसी लीला की है, उसको गाते हैं, तो उससे भला होता है। उत्तर : वहाँ कहते हैं कि यदि ईश्वर को सहज सुख नहीं होगा, तब संसारीवत् लीला से सुखी हुआ। यदि वह सहज सुखी होता, तो किसलिए विषयादि सेवन या युद्धादि करता ? क्योंकि मंदबुद्धि भी बिना प्रयोजन किंचित् मात्र भी कार्य नहीं करते; इससे जाना जाता है कि वह ईश्वर हम जैसा ही है। उसका यश गाने से क्या सिद्धि होगी ? 26. प्रश्न : वह फिर कहता है कि हमारे शास्त्रों में त्याग, वैराग्य, अहिंसादिक का भी तो उपदेश है। उत्तर : वह सब उपदेश पूर्वापर विरोध सहित है, कहीं विषय पोषते हैं, कहीं निषेध करते हैं; कहीं पहले वैराग्य दिखाकर, पश्चात् हिंसादिक का करना पुष्ट किया है। वह वातुलवचनवत् प्रमाण कैसे हो ? 27. प्रश्न : वह कहता है कि वेदान्त आदि शास्त्रों में तो तत्त्व का निरूपण है। उत्तर : उनको कहते हैं - नहीं, वह निरूपण प्रमाण से बाधित है, अयथार्थ है, उसका निराकरण जैनदर्शन के न्यायशास्त्रों में किया है, वहाँ से जानना; इसलिए अन्यमत के शास्त्रों का अभ्यास न करना / इसप्रकार जीवों को इस शास्त्र के अध्ययन में सन्मुख किया।