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अज्ञेय जीवन रहस्य
लीलाएं होंगी, न मालूम कितनी सीताएं खोएंगी और न मालूम कितने युद्ध होंगे, लेकिन अब उन युद्धों का मूल्य एक नाटक से ज्यादा नहीं रहा ।
इसलिए हमने राम के इस पूरे खेल को रामलीला कहा है। उसको हमने बहुत सोचकर लीला कहा है। कृष्ण के जीवन को हमने कृष्णलीला कहा है, बहुत सोचकर । लीला का अर्थ है कि इसका मूल्य अब खेल से ज्यादा नहीं है।
एक लहर उठी है सागर में, हवाओं में, थपेड़ों में। उछलेगी, कूदेगी, नाचेगी, सूरज से मिलने की होड़ करेगी; फिर गिर जाएगी, खो जाएगी। अनेक बार उठी है यह लहर पहले भी, अनेक बार बाद में भी उठेगी। अगर यह लहर यह जान जाए कि जब मैं नहीं उठी थी, तब भी थी, और जब गिर जाऊंगी, तब भी रहूंगी, तो फिर इस लहर का होना एक खेल हो गया। तब इसमें से भार, गंभीरता, बोझ विलीन हो गया। तब मिटना भी एक आनंद है, होना भी एक आनंद है, न हो जाना भी एक आनंद है। क्योंकि न होकर भी हम मिटते नहीं हैं, और होकर भी हम नए नहीं होते हैं। एक सातत्य है, एक कंटीनम है।
यह शब्द वैज्ञानिक है। आइंस्टीन ने इस शब्द का उपयोग किया है, कंटीनम, एक सातत्य | चीजें सदा हैं। इसलिए चीजों का जो रूप आज दिखाई पड़ता है, वह बहुत मूल्यवान नहीं रह जाता। तब पाप भी मूल्यवान नहीं है और पुण्य भी मूल्यवान नहीं है। तब मैंने जो किया, वह मूल्यवान नहीं है; वरन मैं जो हूं, वही मूल्यवान है। तब मेरे साथ जो किया गया, वह भी मूल्यवान नहीं है; तब होना, बीइंग कीमत की चीज है। डूइंग, करना गैर- कीमती चीज है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जान लेगा इस सातत्य को - जो मेरे अजन्मा होने को, अनादि, अनंत होने को जान लेगा - वह सब पापों के पार हो जाएगा।
लेकिन कोई चाहे कि पापों के पार होना है, इसलिए मान लो कि कृष्ण अनादि हैं, अजन्मा हैं, भगवान का होना सदा से है - इस भूल में आप मत पड़ना । इससे पाप नष्ट नहीं होंगे। यह आप जान लेंगे, तो पाप नष्ट हो जाएंगे। लेकिन आप पाप नष्ट करने के लिए ही अगर इसको मान लेंगे, तो पाप नष्ट नहीं होंगे।
पाप तो हम सभी नष्ट करना चाहते हैं, लेकिन बिना ज्ञान की उस ज्योति को उपलब्ध हुए, जहां पाप का अंधेरा गिर जाता है। पाप हम नष्ट करना चाहते हैं, लेकिन ज्ञान की ज्योति को जन्माने की चेष्टा नहीं करना चाहते। तो फिर हम मानकर बैठ जाते हैं कि ठीक
है, हम मानते हैं कि ज्ञान की ज्योति है; मानते हैं कि ईश्वर अजन्मा | है। लेकिन जो भी हम करते हैं, उससे सिद्ध होता है कि न हमें ईश्वर का पता है, न उसके अजन्मा होने का पता है।
कृष्ण के सामने अर्जुन की तकलीफ यही है। अर्जुन कह यह रहा है कि मेरे मित्र हैं, प्रियजन हैं, सगे-संबंधी हैं, युद्ध में इनको काटूं, यह बड़ा पाप है। इनसे लडूं, यह बड़ा पाप है। इससे तो अच्छा है, मैं संन्यास ले लूं। मैं यह सब छोड़ दूं । मैं भाग जाऊं, मैं विरत हो जाऊं ।
कृष्ण उससे कह रहे हैं कि जब तक तू देख नहीं पा रहा है कि इन सारी लहरों के भीतर एक ही सागर है। जब ये लहरें नहीं थीं, तब भी वह सागर था; और जब कल ये लहरें सब गिर जाएंगी, तब भी सागर रहेगा। अगर तू इस अनादि, अजन्मा को देख ले, तो फिर तुझे यह जो पाप की और पुण्य की धारणा पैदा होती है, यह तत्काल विसर्जित हो जाए ।
परम ज्ञानी के लिए न कोई पाप है और न कोई पुण्य । इसका यह अर्थ नहीं कि वह पाप करता है। वह पाप कर ही नहीं सकता। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह पुण्य नहीं करता। वह पुण्य ही कर सकता है। पुण्य और पाप की परिभाषा ज्ञानी के जीवन में दूसरी ही हो जाती है।
अभी हम उसे पाप कहते हैं, जो नहीं करना चाहिए, यद्यपि करते हैं। और उसे पुण्य कहते हैं, जो करना चाहिए और नहीं करते हैं। | जैसे ही कोई व्यक्ति ईश्वर के इस सातत्य को अनुभव करता है, | वैसे ही पाप और पुण्य की परिभाषा बदल जाती है। तब वह व्यक्ति जो करता है, वह पुण्य कहलाता है। और वह जो नहीं करता है, | वह पाप कहलाता है । और जो नहीं करता है, वह करना भी चाहे, तो नहीं कर सकता है। और वह जो करता है, अगर चाहे भी कि न करूं, तो बच नहीं सकता है।
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पुण्य अनिवार्यता है ज्ञान में। और पाप अनिवार्यता है अज्ञान में। लाख उपाय करो, अज्ञान में पाप से बचा नहीं जा सकता; पाप होगा ही । और लाख उपाय करो, ज्ञान में पुण्य से बचा नहीं जा सकता; पुण्य होगा ही । ज्ञान में जो होता है, उसका नाम पुण्य है; और अज्ञान में जो होता है, उसका नाम पाप है। इसलिए अज्ञान में जिन्हें | हम पुण्य समझकर करते हैं, वह हम समझते ही होंगे कि पुण्य हैं, पुण्य होते नहीं ।
अज्ञान में एक आदमी मंदिर बनाता है भगवान का, तो सोचता है, पुण्य कर रहा है। लेकिन मंदिर जिस ढंग से बनाता है, जहां से