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अज्ञेय जीवन-रहस्य 3
जो मेरे को अजन्मा, अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर तत्व से व्यवस्थित जगत बिना ईश्वर के बनाए नहीं बन सकता। जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो | __ आस्तिक यह दलील शायद इसलिए देते हैं कि उनकी बुद्धि भी, जाता है।
| जगत बिना बनाया है, ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन तब फिर क्या किया जाए? महर्षि नहीं जानते, ज्ञानी नहीं जानते, | उन्हें पता नहीं है कि एक ही कदम आगे बढ़कर मुसीबत शुरू हो दिव्य पुरुष नहीं जानते, फिर क्या किया जाए? फिर इस परम तत्व | जाएगी। और नास्तिक पूछते हैं कि अगर जगत बिना बनाया नहीं को जानने के लिए क्या है उपाय?
| बन सकता, तो तुम्हारे ईश्वर को किसने बनाया है? और तब तो कृष्ण कहते हैं, जो मेरे को अजन्मा...।
आस्तिक के पैर के नीचे से जमीन खिसक जाती है। तब अक्सर अब यह बड़ी कठिन बात शुरू हुई। और मनुष्य की श्रद्धा की | | आस्तिक क्रोध में आ जाएगा, क्योंकि आस्तिक बड़े कमजोर हैं। कसौटी वहां है, जहां कठिन बात शुरू होती है। अति कठिन, वह कहेगा, ईश्वर को बनाने वाला कोई भी नहीं है। बल्कि कहें असंभव।
लेकिन तब उसके अपने ही तर्क के प्राण निकल गए। और ईसाई फकीर तरतूलियन ने कहा है कि मैं ईश्वर को मानता हूं, | | नास्तिक उससे कहता है कि अगर ईश्वर को बनाने वाले की कोई क्योंकि ईश्वर असंभव है। उसके भक्तों ने उससे कहा, आपका | | जरूरत नहीं है, तो तुम स्वीकार करते हो कि बिना बनाए भी कुछ मस्तिष्क तो ठीक है? तरतूलियन ने कहा कि अगर ईश्वर संभव है, हो सकता है। तो फिर जगत के ही बिना बनाए होने में कौन-सी तो फिर मुझे उसे मानने की कोई जरूरत ही न रही। सूरज को मैं | | तकलीफ है! तत्वतः यह स्वीकार करते हो कि कुछ हो सकता है जो मानता नहीं, क्योंकि सूरज संभव है। आकाश को मैं मानता नहीं, | | बिना बनाया है, तो इस जगत को क्या अड़चन है! और जब यह क्योंकि आकाश है। मैं ईश्वर को मानता हं, क्योंकि ईश्वर का होना मानना ही है, तो जगत पर ही रुक जाना बेहतर है, और एक ईश्वर बुद्धि के लिए असंभावना है, इंपासिबल है।
को बीच में लाने की क्या जरूरत है? यहां आपको तकलीफ होगी। और जब बुद्धि किसी असंभव को मानती है, तो बुद्धि टूट जाती | | कृष्ण कहते हैं कि वही मुक्त होगा अज्ञान से, जो मुझे अजन्मा है और शून्य हो जाती है। असंभव से टकराकर नष्ट होती है बुद्धि। जानता है। जो मुझे मानता है कि मेरा कोई जन्म नहीं, और मैं हूँ; असंभव से टकराकर विचार खो जाते हैं। असंभव की स्वीकृति के | और मेरा कोई प्रारंभ नहीं, और मैं हूं। साथ ही अहंकार को खड़े होने की जगह नहीं मिलती। यह असंभव इसलिए जो छोटा-मोटा आस्तिक है, वह तो दिक्कत में पड़ेगा, की बात शुरू होती है। यह आपने बहुत बार गीता में पढ़ी होगी और | क्योंकि उसकी तो सारी तर्क की व्यवस्था ही यही है कि अगर कुछ आपको कभी खयाल में न आया होगा कि असंभव है। | है, तो उसका बनाने वाला चाहिए। इसलिए हमने ईश्वर को भी
और जो मेरे को अजन्मा, कृष्ण कहते हैं, जो मुझे मानते हैं | | स्रष्टा, दि क्रिएटर, बनाने वाला, इस तरह के शब्द खोज लिए हैं, अजन्मा, अनबॉर्न, जो कभी पैदा नहीं हुआ। अनादि, जिसका कोई | | जो कि गलत हैं। प्रारंभ नहीं है। ऐसा जो मुझे तत्व से मानते हैं, ऐसा ईश्वर, वे ईश्वर बनाने वाला नहीं है; ईश्वर अस्तित्व है। वही है। उसके मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। | अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वह यह अत्यंत कठिन बात है। इसे हम थोड़ा समझें। | कोई ईश्वर से भिन्न और अलग नहीं है। उसकी ही अभिव्यक्ति है,
हम सभी जानते हैं, तथाकथित धार्मिक लोग लोगों को समझाते | | उसका ही एक अंश है, उसका ही एक हिस्सा है। सागर का ही एक हैं कि ईश्वर है। क्योंकि अगर ईश्वर न होगा, तो जगत को बनाया हिस्सा लहर बन गया है। अभी थोड़ी देर बाद फिर सागर हो किसने? आस्तिक सोचते हैं, बड़ी गहरी दलील दे रहे हैं। बहुत | जाएगा। फिर लहर बन जाएगा। लहर सागर से अलग नहीं है। बचकानी है दलील। आस्तिक सोचते हैं कि बड़ी गहरी दलील दे | । यह जो सृष्टि है...। हमारे शब्द में ही कठिनाई घुस गई है, हमने रहे हैं कि अगर ईश्वर न होगा. तो जगत को बनाया किसने? सोचते-सोचते इसको सृष्टि ही, क्रिएशन ही कहना शुरू कर दिया आस्तिक कहते हैं कि एक छोटा-सा घड़ा भी बनाना हो, तो कुम्हार | है। यह जो दिखाई पड़ रहा है हमें चारों तरफ, यह जो प्रकृति है, की जरूरत होती है। अगर घड़ा है, तो कुम्हार भी रहा होगा। होगा। यह प्रकृति परमात्मा का ही हिस्सा है। यह उतनी ही अजन्मी है, बिना बनाए घड़ा भी नहीं बन सकता। और इतना विराट, इतना | जैसा परमात्मा अजन्मा है।
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