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बाल-दीक्षा मैं बाल-दीक्षा विरोधके प्रश्नपर व्यापक दृष्टि से सोचता हूँ। उसको केवल जैन-परम्परातक या किसी एक या दो जैन फिरकोंतक सीमित रखकर विचार नहीं करता क्योंकि बाल-दीक्षा या बाल-संन्यासकी वृत्ति एवं प्रवृत्ति करीबकरीब सभी त्याग-प्रधान परम्पराओंमें शुरूसे आजतक देखी जाती है, खासकर भारतीय संन्यास-प्रधान संस्थाओंमें तो इस प्रवृत्ति एवं वृत्तिकी जड़ बहुत पुरानी है और इसके बलाबल तथा औचित्यानौचित्यपर हजारों वर्षों से चर्चा-प्रतिचर्चा भी होती आई है। इससे संबन्ध रखनेवाला पुराना और नया वाङ्मय व साहित्य भी काफी है। _____ भारतकी त्यागभूमि तथा कर्मभूमि रूपसे चिरकालीन प्रसिद्धि है । खुद बापूजी इसे ऐसी भूमि मानकर ही अपनी साधना करते रहे। हम सभी लोग अपने देशको त्यागभूमि व कर्मभूमि कहने में एक प्रकारके गौरवका अनुभव करते हैं। साथ ही जब त्यागी संस्थाके पोषणका या पुराने ढंगसे उसे निबाहनेका प्रश्न आता है तब उसे टालते हैं और बहुधा सामना भी करते हैं। यह एक स्पष्ट विरोध है । अतएव हमें सोचना होगा कि क्या वास्तवमें यह कोई विरोध है या विरोधाभास है तथा इसका रहस्य क्या है ?
अपने देशमें मुख्यतया दो प्रकारकी धर्म संस्थाएँ रही हैं, जिनकी जड़ें तथागत बुद्ध और निग्रंथनाथ महावीरसे भी पुरानी हैं। इनमें से एक गृहस्थाश्रम केंद्रित है और दूसरी है संन्यास व परिव्रज्या-केंद्रित । पहली संस्थाका पोषण
और संवर्धन मुख्यतया वैदिक ब्राह्मणोंके द्वारा हुअा है, जिनका धर्म-व्यवसाय गृह्य तथा श्रौत यज्ञयागादि एवं तदनुकूल संस्कारोंको लक्ष्य करके चलता रहा है।
दूसरी संस्था शुरूमें और मुख्यतया ब्राह्मणेतर यानी वैदिकेतर, खासकर कर्मकांडीब्राह्मणेतर वर्गके द्वारा आविर्भूत हुई है । श्राज तो हम चार आश्रमके नामसे इतने अधिक सुपरिचित हैं कि हर कोई यह समझता है कि भारतीय प्रजा पहलेहीसे चतुराश्रम संस्थाकी उपासक रही है। पर वास्तवमें ऐसा नहीं है ।
बाल-दीक्षा विरोधी सम्मेलन, जयपुरमें ता० १४-१०-४६ को सभापतिपदसे दिया हुअा भाषण ।
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