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द्वितीय अध्याय
२७ निश्चय किया जा सकता है । इन विधियो के अतिरिक्त कई अन्य यंत्र, क्ष किरण आदि भी (scopes and Speculum, Microscopes and X, ray) रोग-सदर्शन मे व्यवहृत होते है। आज के युग मे नैदानिक प्रयोगशालाये ( Clinical pathology ) काफी उन्नत दगा मे है। प्राचीन काल मे इन्द्रियो की शक्ति पर ही चिकित्सक को अधिक निर्भर रहना पड़ता था। आज भी रोग-विनिश्चय मे ये सर्वाधिक विश्वसनीय साधन है ।
रोगि-रोग-परीक्षा का उद्देश्य-जिस रोगी की सामान्य तथा विशेष विधियो के आश्रित रह कर यथाशास्त्र परीक्षा नहीं की गई अथवा जिसके सम्बन्ध मे ठीक से नही बतलाया गया है अथवा जिसके ऊपर चिकित्सक ने ठीक से विचार नहीं किया है, चिकित्सा मे ऐसे रोग वेद्य को मोह में डाल देते है और गलती की सभावना रहती है। परन्तु उपर्युक्त निदानपद्धति के द्वारा विचार कर चिकित्सा की जाय तो गलती को कोई सम्भावना नहीं रहती है
मिथ्यादृष्टा विकारा हि दुराख्यातास्तथैव च । तथा दुष्परिमृष्टाश्च मोहयेयुः चिकित्सकम् ॥
(सु० सू० १०) महर्षि चरक ने भी कहा है
रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौपधम् । ततः कर्म भिपक् पश्चात् ज्ञानपूर्व समाचरेत् ॥
(च० सू० २० निदान-लक्षणम्
[ Defination cf Etiology ] अब हम अपने प्रकृत-विषय निदानपचक पर पुन दृष्टिपात करते है । निदानपचक-कथन का प्रयोजन बतलाते हुए सक्षेप मे इन सज्ञाओ की व्याख्या ऊपर हो चुकी है । अब विस्तार के साथ निदान-पूर्वरूप-रूप-उपशय एव सम्प्राप्ति की एकेकश व्याख्या करना प्रासगिक है। सर्वप्रथम निदान को लेते है ।
निदान-निरुक्ति-१ नि + दिश । पृपोदरादित्वात् साधु । नि निश्चय निपेधयो । प्रकृत मे नि शब्द निश्चयार्थक ही व्यवहृत हुआ है । दिश धातु मे, करण मे ल्युट् प्रत्यय होकर दान शब्द की निष्पत्ति होती है। समूह मे शब्द बना निदान, जिसका अर्थ होता है -- जिसके द्वारा व्याधि का निर्देश अथवा व्याधि का निश्चित रूप से प्रतिपादन हो सके अथवा जिसके द्वारा व्याधि के हेतु ( कारण )