Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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(XXIX)
जैन दर्शन के अनुसार - मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति को सम्यग् दर्शन या सम्यग् श्रद्धान प्राप्त करना अनिवार्य है। इसके बिना न चारित्र (साधुत्व) का पालन फलीभूत होगा और न ही देश - चारित्र (श्रावकत्व) का पालन । सम्यक्त्व को पुष्ट करने के लिए अनेक सूत्र आगमों में उपलब्ध होते हैं ।
उत्तरज्झयणाणि के २९ वें अध्ययन 'सम्यक्त्व पराक्रम' में हमें ऐसे अनेक सूत्र मिलते हैं, जिसका एक सूत्र है
"भंते! संवेग (मोक्ष की अभिलाषा) से जीव क्या प्राप्त करता है ?
संवेग से वह अनुत्तर धर्म - श्रद्धा को प्राप्त होता है । अनुत्तर धर्म - श्रद्धा से शीघ्र ही और अधिक संवेग को प्राप्त करता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ क्षय करता है। नये कर्मों का संग्रह नहीं करता । कषाय के क्षीण होने से प्रकट होने वाली मिथ्यात्वविशुद्धि कर दर्शन (सम्यक् श्रद्धान) की आराधना करता है । दर्शन - विशोधि के विशुद्ध होने पर कई एक जीव उसी जन्म से सिद्ध हो जाते हैं और कई उसके विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं करते - उसमें अवश्य ही सिद्ध हो जाते हैं।"" इसकी व्याख्या इस प्रकार है
"संवेग और धर्म - श्रद्धा का कार्य-कारण-भाव है । मोक्ष की अभिलाषा होती है तब धर्म में रुचि उत्पन्न होती है और जब धर्म में रुचि उत्पन्न हो जाती है तब मोक्ष की अभिलाषा विशिष्टतर हो जाती है । जब संवेग तीव्र होता है तब अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ क्षीण हो जाते हैं, दर्शन विशुद्ध हो जाता है ।
" जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, उसके कर्म का बन्ध नहीं होता । वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही मुक्त हो जाता है । 'कम्मं न बंधई' इस पर शान्त्याचार्य ने लिखा है कि अशुभ कर्म का बन्ध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि के अशुभ कर्म का बंध नहीं होता, ऐसा नहीं कहा जा सकता । अशुभ योग की प्रवृत्ति छठे गुणस्थान तक हो सकती है और कषाय-जनित अशुभ कर्म का बन्ध दसवें गुणस्थान तक होता है । इसलिए इसे इस रूप में समझना चाहिए कि जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, अनन्तानुबन्धी- चतुष्क सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसके नये सिरे से मिथ्या दर्शन के कर्म - परमाणुओं का बन्ध नहीं होता । क्योंकि मिथ्यात्व की विशोधि हो जाती है, उसका क्षय हो जाता है । तात्पर्यार्थ में वह व्यक्ति क्षायक सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है । क्षायक सम्यक्त्वी दर्शन का आराधक होता है । वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही मुक्त हो जाता है । इसका सम्बन्ध दर्शन की उत्कृष्ट आराधना से है । जघन्य और मध्यम आराधना वाले अधिक जन्मों तक संसार में रह सकते हैं । किन्तु उत्कृष्ट आराधना वाले तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं करते। यह तथ्य भगवई (८/४५९) से भी समर्थित है
"गौतम ने पूछा - "भगवन् ! उत्कृष्ट दर्शनी कितने जन्म में सिद्ध होता है ?"
१. उत्तरज्झयणाणि, २९ / २ ।