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अनेकान्त-56/1-2
वे निश्चित ही सर्वदुःख दूर कर मोक्ष को प्राप्त करते है (लिंगपाहुड 22)।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जिनचिह्न धारण करने वाले साधु यदि स्वय को महन्त मान कर आगम के विपरीत मोक्षमार्ग की उलटी-पुलटी व्याख्या करते हैं या व्यक्तिगत विश्वासों के अनुसार उसका असत्य निरूपण करते हैं, षट् रस एवं भोजन में आसक्ति रखते हैं, नारियों के प्रति अनुराग रखते है; छल, कपट, प्रलोभन दे कर धार्मिक क्रियाओं की आड़ में नारियों का स्पर्श, संसर्ग एवं सेवन करते हैं, रात्रि में सम्मोहन आदि की अविहित क्रियाएँ करते हैं, ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्र एवं अन्य लौकिक कार्यो में रुचि लेते हैं; रुपया, मकान, भोग-उपभोग की सामग्री, वाहन आदि परिग्रह की कामना करते है। हिंसा, मारपीट, चोरी, झूठ, अब्रह्म आदि पाप कार्य करते-कराते हैं, धर्म के नाम.पर हिंसा, कषाय पोषक एवं निन्द्य ग्रन्थों का अभ्यास एवं रचना करते हैं, जिनदेव, जिनगुरु एवं जिनशास्त्रों की अवज्ञा-अविनय करते है, रागी देवी-देवताओ को पूजते हैं और शरीर क्रिया, भोजन एवं इन्द्रिय-पोषण आदि मे मग्न रहते हैं, वे वास्तव में जिनमार्गी श्रमण न हो कर जिनेतर-चिन्ही, उन्मार्गी, पापी एव नरकगामी होते हैं, भले ही फिर बाह्य में वे कितनी ही कठोर शारीरिक तपस्या क्यों न करते हो? आत्मज्ञान के बिना कितना ही कठोर तप किया जाए उससे कर्मो की निर्जरा नहीं होती।
बालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं। भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि।।
-आचार्य कुन्दकुन्द साधुओं के बाल के अग्रभाग के बराबर भी परिग्रह नहीं होता। वे एक ही स्थान में दूसरों के द्वारा दिये गये प्रासुक अन्न को अपने हाथ-रूपी पात्र मे ग्रहण करते हैं।
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