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★ अनेकान्त-56/1-2
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किया गया है। प्रति में लेखनकाल का उल्लेख नहीं है। मूलपाठ के कठिन स्थलों को स्पष्ट करने के लिए संस्कृत में टिप्पणियाँ दी गई हैं। अनुवाद को यथासंभव सरल-सुबोध बनाया गया है। विषय को सरल और स्पष्ट बनाने के लिए न्याय के कठिन विषयों को शंका-समाधान, वादी प्रतिवादी, स्पष्टार्थ, भावार्थ आदि शीर्षक देकर प्रस्तुत किया गया है। उक्त संस्करण का परिशिष्ट भाग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, इस सम्बन्ध में डा. जैन के ये वाक्य दृष्टव्य हैं-
" परिशिष्ट- इस संस्करण का महत्वपूर्ण भाग है। इसमे जैन, बौद्ध, न्याय-वैशषिक, सांख्य-योग, पूर्व मीमांसा, वेदान्त, चार्वाक और विविध नाम के आठ परिशिष्ट हैं। जैन परिशिष्ट में तुलनात्मक दृष्टियो में बौद्धों के विज्ञानवाद, शून्यवाद, अनात्मवाद आदि दार्शनिक सिद्धांतों का पालि, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के ग्रन्थों के आधार से प्रामाणिक विवेचन किया गया है। आशा है इसके पढ़ने से पाठकों की बौद्ध दर्शन संबंधी बहुत-सी भांति पूर्ण धारणाये दूर होगी। तीसरे न्याय- - वैशेषिक परिशिष्ट में ईश्वर संबंधी चर्चा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। चौथे सांख्य-योग परिशिष्ट में सांख्य, योग जैन और बौद्ध दर्शनों की तुलना करते समय जो ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति संबधी भेद दिखाया गया है, वह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पांचवे परिशिष्ट में मीमांसक और जैनों की तुलना, छठे में शंकर के मायावाद की विज्ञानवाद और शून्यवाद से तुलना, सातवे में चार्वाकमत और आनन्दघन जी का उसे जिन - भगवान की कूख बताना और आठवे परिशिष्ट मे आजीविक सम्प्रदाय ध्यानपूर्वक पढ़ने योग्य हैं।" (स्याद्वादमंजरी की भूमिका, पृ. 4-5 ) ।
उपर्युक्त परिशिष्ट अत्यन्त परिश्रम पूर्वक लिखा गया है। इसे देखने से लेखक के गंभीर अध्ययन एव चिन्तन-मनन की अद्भुत क्षमता का पता सहज ही लग जाता है । ग्रन्थ के अन्त मे विशेष महत्व की तेरह अनुक्रमणिकायें भी गई हैं।
प्राकृत साहित्य का इतिहास
सन् 1945 में जब डा. जैन ने "जैन आगमों में प्राचीन भारत का चित्रण " नामक महानिबन्ध ( थीसिस) लिखकर पूरा किया, उसी समय से उनकी इच्छा प्राकृत साहित्य का इतिहास लिखने की थी, जिसे वे प्राकृत - जैनशास्त्र विषय के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त होकर पूर्ण कर सके। प्राकृत भाषा के साहित्य