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अनेकान्त-56/3-4
है। तीर्थकरों की दूसरे प्रकार की प्रतिमाएं तप का भाव व्यक्त करती हुई कायोत्सर्ग मुद्रा में होती है। वृहत संहिता में बताया गया है कि घुटने तक लटकते हाथ, छाती में श्रीवत्स का चिन्ह, तरूण-सुन्दर, प्रशान्त अर्हतदेव की प्रतिमा, सौम्य, शान्त ध्यानस्थ निर्मित होनी चाहिये।
दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में निर्मित तीर्थकर प्रतिमाओं में कुछ भिन्नता होती है। दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रतिमा पूर्णतः नग्न होती है। और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वस्त्र होता है। उसमें गुह्या भाग नही दिखाया जाता है। "जिन" प्रतिमा का बैठा हुआ स्वरूप सभी तीर्थकर प्रतिमाओं में एक समान होता है। केवल उसकी पीठिका पर निर्मित लाक्षणों से उस तीर्थकर प्रतिमा की पहचान की जाती है।
जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का निर्माण काल भारतीय समाज एक ऐसा समाज था जो एक सीमा तक धर्म से प्रभावित था समाज में जाति भेद भी धर्म के ही कारण था। जिस समय चित्रों और मूर्तियों का निर्माण हुआ, उस समय कला की उन्नति के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्र में भी उन्नति हुई। ब्राह्मण धर्म कर्मकाण्डो से युक्त था। यज्ञ अनुष्ठान ही इसके प्रधान तत्व थे। कला की अभिवयक्ति हेतु किसी आधार का अभाव होने से विशिष्ट प्रगति न हो सकी। अतएव क्षत्रिय राजाओं ने जनता को नयी विचारधारा प्रधान की। नवीन कला का प्रादुर्भाव हुआ, जैन और बौद्ध धर्म की पुनः स्थापना हुई। इसके सिद्धान्त इतने सरल और स्वाभाविक थे कि जनता शीघ्र ही इस ओर आकर्षित होने लगी। राजाओं ने इसे राजधर्म घोषित किया। धर्म के प्रचार हेतू कला को अपना माध्यम बनाया। जिससे कलास्वरूप मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्यकला आदि कलाओं का श्रेष्ठतम विकास हुआ। चित्र एवं मूर्तियां कलाकार की अनुभूति, कल्पना, मौलिकता, त्याग और शक्ति की परिचायक हैं।
जैन तीर्थकरो की प्रतिमाओं का निर्माण कब से आरम्भ हुआ यह स्पष्ट