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अनेकान्त-56/3-4
अहिंसा : साम्यवाद की अभिव्यञ्जक महाशक्ति- जैन अनुशासन की मूलभित्ति अहिंसा है। यह साम्यवाद की अभिव्यञ्जक महाशक्ति है। इसका जितना सूक्ष्म विवेचन जैन परम्परा में मिलता है, उतना अन्य किसी परम्परा में नहीं। प्रत्येक आत्मा चाहे वह किसी भी योनि में क्यों न हो तात्त्विक दृष्टि से समान है। चेतना के धरातल पर समस्त प्राणी समूह एक जैसे हैं। उसमें कोई भेद नहीं है। जैन दृष्टि का यह ‘साम्यवाद' भारत के लिये गौरव की वस्तु है। इसी साम्यवाद के आधार पर जैन परम्परा यह घोषणा करती है कि सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम मन से भी किसी के वध की बात न सोचे शरीर से हत्या कर देना तो पाप है ही, किन्तु मन में तद्विषयक भाव होना भी पाप है। मन, वचन, काय से किसी भी प्राणी को संताप नहीं देना, उनका वध नहीं करना, उसे कष्ट नहीं देना यही सच्ची अहिंसा है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री कुन्द-कुन्द कहते हैं कि'उचचालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए। आबाधेज्ज कुलिंग मरिज्ज तं जोगमासेज्ज।। -प्र.सा.मू.गा. 3.17(1) ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहमो य देसिदो समये। मुच्छा परिग्गहोच्चिय अज्झप्पमाणदो दिट्ठो।।' -प्र.मा.मू गा 3 17 (2)
अर्थात् यदि कोई मनुष्य सावधानीपूर्वक जीवों को बचाते हुये देखभाल कर चल रहा है, फिर भी यदि कदाचित् कोई जीव उसके पैरों के नीचे आकर मर भी जाए तो उसे तज्जन्य हिंसा संबंधी सूक्ष्म पाप भी नहीं लगता क्योंकि उसके मन में हिंसा के भाव नहीं हैं तथा वह सावधान है। ___ इसके विपरीत यदि कोई मनुष्य ‘मेरी इस प्रवृत्ति से किसी का घात हो रहा है या नहीं, किसी को कष्ट पहुंच रहा है या नहीं इस बात का विचार किए बिना एकदम लापरवाही और असावधानी से चल रहा है तो उसे हिंसा निमित्तक पाप आवश्य लगेगा भले ही जीव का वध हो या न हो।
'मरदु व जीयदु व जीवो अयदाचारस्य णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स।।' -प्र.सा.मू.गा. 3.17