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अनेकान्त - 56/3-4
प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव ये प्रतिजीवी गुण स्वरूप अभाव अंश माने जाते हैं।
शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति सब शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं। लक्षण, गुण, अंग ये सब एकार्थवाची शब्द हैं (पं. ध. / उ/478) ।
पर्याय- द्रव्य अनंत गुणों का पिण्ड है। गुणों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है जो पर्याय कहलाता है । द्रव्य की परिणति या कार्य तथा द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। जो सर्व और भेद को प्राप्त करे सो पर्याय है- 'परि समन्तादायः पर्यायः' (रा. वा. 1 / 33/1 / 95 / 6 ) । पर्याय का अर्थ वस्तु का अंश है । वह दो प्रकार का है- ध्रुव अन्वयी और क्षणिक व्यतिरेकी । अन्वयी को गुण और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं। पर्याय गुणों के विशेष परिणमन रूप हैं। पर्यायें क्रम भावी/क्रम नियमित क्षणिक होती हैं । वे भी कथंचित सत् हैं । पर्याय शुद्ध - अशुद्ध उपादान की तत्काल की योग्यतानुसार उत्पन्न- विनाश को प्राप्त होती रहतीं है । कारण अनुसार कार्य होता है। कारणों का समूह 'समवाय' कहा जाता है, वे पाँच हैं :- स्वभाव, निमित्त नियति ( होनहार ), पुरुषार्थ और भवितव्य । इनमें 'स्वभाव' द्रव्य है, शेष पर्यायें हैं । जीव के पाँच भावों में पारिणामिक भाव स्वभाव भाव है, शेष चार भाव पर्यायें हैं ।
पर्याय के भेद जानना भी अपेक्षित है। पर्याय दो प्रकार की है- द्रव्य पर्याय और गुण पर्याय । अन्य प्रकार से इसके दो भेद है- व्यंजन पर्याय और अर्थ पर्याय । पर्यायें स्वभाव और विभाव रूप दो-दो प्रकार की होती हैं यथास्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय, विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय, स्वभाव गुण पर्याय और विभाव गुण पर्याय। अर्थ व गुण पर्याय एकार्थी हैं तथा व्यंजन व द्रव्य पर्याय एकार्थवाची हैं । द्रव्य (व्यंजन) पर्याय भी दो प्रकार की है - समानजातीय द्रव्य पर्याय जैसे स्कंध और असमान जातीय द्रव्य पर्याय जैसे नर, देवादिक की जीव-पुद्गलात्मक पर्याय। व्यंजन पर्याय स्थूल- शब्द गोचर है। गुण पर्याय सूक्ष्म ज्ञान विषयक है ।