Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 251
________________ 116 अनेकान्त-56/3-4 ___अर्थ- पदार्थ द्रव्य स्वरूप है; द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं और द्रव्य तथा गुणों की पर्यायें होती हैं। पर्याय-मूढ़ (पर्याय में लीन) जीव पर समय-अर्थात् मिथ्यादृष्टि हैं। __ आचार्य कुन्दकुन्द ने पदार्थ को द्रव्य गुण पर्याय रूप त्रिपदात्मक कहकर मनुष्य देव आदि असमानजातीय पर्याय को अपना मानने एवं द्रव्य स्वभाव को विस्मृत करने वाले जीव को परसमय -मिथ्यादृष्टि कहा है। आचार्य उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थ सूत्र में सत् द्रव्य के साथ 'गुणपर्ययवद द्रव्यम' (सूत्र 5/38) कहकर द्रव्य को गुण पर्यायवान कहा है। 'अन्वयिनो गुणा' गुण अन्वयी होते हैं और द्रव्य के साथ सदैव रहते हैं। 'व्यतिरेकिणः पर्यायाः' पर्याय व्यतिरेकी या क्षणभंगुर होती हैं। प्रत्येक द्रव्य में सहभावी गुण और क्रमभावी पर्यायें होती हैं। गुण अन्वय-स्वभाव होने से ध्रौव्य के अविनाभावी हैं और पर्याय व्यतिरेक-स्वभाव होने से उत्पाद और व्यय के अविनाभावी हैं। इस दृष्टि से द्रव्य का त्रिलक्षणात्मक सत् स्वरूप एवं त्रिपदात्मक स्वरूप दोनों का एक ही अभिप्राय है किन्तु कथन का दृष्टिकोण एवं लक्ष्य भिन्न-भिन्न होकर भी स्व-समय में प्रवृत्ति का उद्देश्य एक ही है। गुण- द्रव्य में भेद करने वाले धर्म को गुण कहते हैं। आचार्य उमास्वामी ने 'द्रव्याश्रिया निर्गुणा गुणाः' (सूत्र 5/41) अर्थात जो द्रव्य के आश्रय से रहता हुआ भी दूसरे गुण से रहित है, उसे गुण कहते हैं, के रूप में परिभाषित किया है। न्यापदीपिकाकार के अनुसार जो सम्पूर्ण द्रव्य में व्याप्त होकर रहते हैं और समस्त पर्यायों के साथ रहने वाले हैं, उन्हें गुण कहते हैं। द्रव्य और गुण के मध्य आधार-आधेय सम्बन्ध होता है। द्रव्य आधार है और गुण आधेय। गुण द्रव्य के आश्रय रहते हैं किन्तु गुण के आश्रय से अन्य गुण नहीं रहते हैं। गुणों के मध्य आधार-आधेय एवं कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं होता। एक गुण दूसरे गुण से स्वतंत्र होता हुआ भी साथ-साथ रहते हैं। गुणों के मध्य अविनाभाव सम्बन्ध होता है। इसी प्रकार द्रव्य और गुणों के मध्य नित्य तादात्मय सम्बन्ध होता है। इस कारण द्रव्य से गुण कभी भिन्न नहीं होते।

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