Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 256
________________ कर्म सिद्धान्त की वैज्ञानिकता ___ -प्राचार्य (पं.) निहालचन्द जैन जीवन दोनों तरफ फैला है-बाहर भी, भीतर भी। बाहर की खोज विज्ञान है और भीतर की खोज अध्यात्म-विज्ञान है। इसे वीतराग विज्ञान से भी संज्ञित किया जा सकता है। यदि बाहर का भौतिक विज्ञान दृश्य जीवन की जड़ है तो अध्यात्म-विज्ञान का अर्थ जीवन का महकता फूल है। धर्म का मूल स्रोत अन्तर्ज्ञान-दृष्टि है और विज्ञान का मूल-बुद्धि/तर्क पर टिका है। अन्तदृष्टि-सर्वकालिक और शाश्वत होती है जबकि बुद्धि और तर्क-कारणों के बदल जाने से परिवर्तनशील है। इसलिए विज्ञान प्रयोगों के निष्कर्ष पर/अनुभव पर टिका है, जबकि धर्म अनुभूति पर। परन्तु दोनों का उद्गम-चैतन्य आत्मा है। ___ जैसे वायुयान, धरातल पर बनी हवाई-पट्टी पर गतिशील होकर आकाश में ऊपर उठता है, ऐसे ही जीवन का वायुयान विज्ञान की पट्री पर गतिशील बनकर धर्म के उन्मुक्त आकाश में ऊर्ध्वशील होता है। अतः स्वस्थ-जीवन की दो आखें हैं : विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान-दोनों की रोशनी से ही समन्वय का दर्शन फलित होता है। विज्ञान समृद्ध हुआ है। इक्कीसवीं शताब्दी सुपर कम्प्यूटर की धुरी पर घूमेगी। सूचनाओं की प्रोद्यौगिकी/ज्ञान कोष में वृद्धि होगी परन्तु यदि अध्यात्म अनुपस्थित रहा तो उसमें सद् दृष्टि का विवेक नहीं जुड़ पायेगा। याद रखें : विवेक रहित ज्ञान से संवदेनशील और सौन्दर्यपरक सृजन-शक्ति की बजाय ध्वंसात्मक शक्ति को ज्यादा बढ़ावा मिलेगा। __धर्म और विज्ञान की सहमैत्री-इक्कीसवीं शताब्दी के लिए शुभाशीष बने और इनकी व्याप्ति विस्तृत हो इस शोधालेख को इसी भाव से निहारा जा सके, तो कर्मसिद्धान्त की शाश्वतता को वैज्ञानिक-आँख से भी पढ़ा जा सकता है। जैनदर्शन में कर्म की सिद्धि- प्रत्येक जीव मूलतः अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख

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