Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 263
________________ 128 अनेकान्त-56/3-4 'विपाकोऽनुभवः।' (तत्त्वार्थ 8/21) स यथानाम-(वही-8/22) उदय में आकर फल देने का अनुभव बंध कहते हैं। यह द्रव्य, क्षेत्र काल, भव और भाव की सापेक्षतापूर्वक तीव्र या मंदभाव रूप होता है। 3. प्रदेश बंध- तत्त्वार्थसूत्र 8-24 का निम्न सूत्र प्रदेशबंध के संबंध में 6 बातों का रहस्य खोलता है'नामप्रत्ययाःसर्वतोयोगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहै स्थिता सर्वात्म प्रदेशस्वानान्तानन्तः प्रदेशाः' 1. प्रदेशबंध किसके कारण है? (नाम प्रत्ययाः) ज्ञानावरणदि सभी कर्म प्रकृतियों के कारण।। 2. वे कर्म प्रदेश कब, कहाँ बंधते हैं? (सर्वतः) सभी भावों में। 3. किस कारण से बंधते हैं? (योग विशेषता) मन वचन और काय के परिस्पन्दन रूप योग के कारण से बंधते हैं। 4. उन कर्मो का स्वभाव कैसा है? (सूक्ष्मैक क्षेत्रावगाहः) सूक्ष्मरूप हैं। 5. बंधने वाले कर्म किनको बांधते हैं? (सर्वात्मप्रदेशेषु) आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षेत्रवर्ती कर्म परमाणुओं को। 6. वे कर्म-स्कन्ध कितनी संख्या वाले हैं? (अनंतानंत प्रदेशाः) एक आत्मा के असंख्यात प्रदेश होते हैं और प्रत्येक प्रदेश में प्रति समय अनंतानंत प्रदेशी पुद्गल स्कन्ध बंध रूप होते रहते हैं। 4. स्थिति बंध- प्रत्येक कर्म के बंधे रहने की काल-मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं। जैसे वेदनीय, अन्तराय, ज्ञानावरणी व दर्शनावारणी के उत्कृष्ट स्थिति 30 कोड़ाकोड़ी मोहनीय की 70 कोड़कोड़ी नाम व गोत्र की 20 कोड़ाकोड़ी सागर। तथा आयु की 33 सागर की होती है। इसी प्रकार जघन्य स्थिति-वेदनीय की 12 मुहूर्त, नाम व गोत्र की 8 मुहूर्त तथा शेष समस्तकर्मो की अन्तमुहूर्त है। इस प्रकार जैनदर्शन में “कर्म" का वही स्थान है जो अन्य दर्शनों में ईश्वर का। कर्म की भूमिका ईश्वर के रूप में है जो जीवों के पर्यायों की सष्टि, संरक्षण और संहार करता रहता है।

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