Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 250
________________ अनेकान्त-56/3-4 115 की अस्वीकृति भी पर-समय है (प्र. सा. 98)। जीवादिक सभी द्रव्य सत् स्वरूप होने से अनादिकाल से अपने-अपने पारिणामिक भाव रूप धुरी पर ध्रुव रूप से पृथक-पृथक गुणों के क्रम बद्ध उत्पाद-व्यय के रूप में परिणमित होकर स्वतंत्र-स्वाधीन, पर निरपेक्ष सत्ता बनाये हुए हैं जिससे लोक संचालित हो रहा है। उसका कोई निर्माता-रक्षक-विद्धंसक नहीं है। जीव और पुदगल कर्म-बंध का कारण जीव का अज्ञान भाव एवं पदार्थो का अयर्थाथज्ञान है। उसने अपने ज्ञायक स्वभाव रूप पारिणामिक ध्रुव भाव को विस्मृत कर मतिज्ञानादि गुणों एवं नर-नरकादि पर्यायों को अपना मान लिया है। तदनुसार पर्यायलीन होकर पर-समय रूप प्रवृत्त होकर दुःखी हो रहा है। वह अपनी भूल सुधार कर यदि पदार्थो के यथार्थज्ञान सहित आत्मा के ध्रुव स्वभाव पर श्रृद्धान करे और उसमें अपनापन स्थापित करे तो शुद्ध नय की विषय भूत-सामान्य, अभेद, नित्य और एक आत्मा वस्तु का अनुभव कर स्व-समय रूप प्रवृत्त होकर शुद्धोपयोग के द्वारा मुक्त स्वतंत्र हो सकता है। लोक व्यवहार में सत-स्वरूप की स्वीकृति एवं स्व-आत्मा सत् की अनुभूति से साधक में सम्पूर्ण द्रव्यों एवं उनके परिणमन के प्रति अस्तित्व बोध का भाव जाग्रत होता है। उनकी सत्ता की स्वीकृति से उनके प्रति सहज-आदर भाव और समत्व भाव हृदय में उत्पन्न होता है। जीवों के प्रति मैत्री, प्रमोद, करूणा और माध्यस्थ्यरूप भाव का स्रोत संत्-स्वभाव से उदगामित होकर केवल-ज्ञान गंगा में अवगाहन कराता है। सत् स्वरूप की स्वीकृति, विभाव-भाव की विस्मृति और ज्ञायक- स्वभाव की उपलब्धि यह भी सत् की चरम परिणति है। आत्म-सिद्धि ही सत्-साधना का सुफल है। द्रव्य का त्रिपदात्मक लक्षण- द्रव्य त्रिलक्षणात्मक के साथ त्रिपदात्मक भी है। इस सम्बन्ध में प्रववन सार की ज्ञेय तत्व प्रज्ञापन की निम्न गाथा महत्वपूर्ण है अत्यो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि मणिदाणि तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढ़ा हि पर समयः (गा. 93)

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