Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 228
________________ अनेकान्त-56/3-4 93 देते हैं जो वैषम्य तथा कटुता बढ़ाती है। ‘अनेकान्तवाद' ऐसी परिस्थितियों का सही उपचार है।" _ 'अनेकान्तवाद' दुराग्रह का प्रतिरोध प्रस्तुत करता है। विभिन्न विचारधाराओं के प्रति वह आदर-भावना को जागृत करता है तथा इस प्रकार सम्यक् विवेक-बुद्धि के उन्नयन में सहायक होता है। वह इस बात पर बल देता है कि देश-काल जन्य तथा अन्य परिस्थितियों के कारण सत्य के विभिन्न रूप संभव हैं और दूसरों के मतों में भी सत्य का अंश विद्यमान रहता है। यह विचारधारा प्राचीन होते हुए भी किसी काल-परिधि में आबद्ध नहीं कही जा सकती। यह एक ऐसे कल्याणवाद शाश्वत सिद्धान्त के रूप में मान्य होना चाहिए, जो भूतकाल में ही नहीं वर्तमान और भविष्य में भी एक वैज्ञानिक तथ्य के समान उपादेय होता है। अपरिग्रह : समता-मूलक समाज-व्यवस्था का ज्ञापक- जैन दर्शन में महाव्रत पाँच होते हैं। अपरिग्रह भी इनमें से एक है। आचार्य उमास्वामी (ई. प्रथम शती) ने 'तत्त्वार्थसूत्र' में परिग्रह का लक्षण-मूर्छा परिग्रह किया है। धन-धान्य, कुटुम्ब परिवार और अपने शरीर के प्रति उत्पन्न आसक्ति परिग्रह है। इस परिग्रह का पूर्णतया त्याग करना अपरिग्रह महाव्रत है। आचार्य समन्तभ्रद (ई. द्वितीय शती) ने 'रलकरण्डश्रावकाचार' में धन संचय की निरर्थकता को रेखांकित करते हुए कहा है 'यदि पाप-निरोधोऽन्य सम्पदा किं प्रयोजनम् ।। यदि पापासवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्।। -आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार/27 अर्थात् 'यदि जीवन में पाप का निरोध हो गया तो वह निष्पाप-जीवन ही सबसे बड़ी सम्पदा है। फिर अन्य किसी सम्पदा का कोई अर्थ नहीं है। और यदि जीवन में पाप का आस्रव हो रहा हो, हमारा आचरण पापमय हो, तो

Loading...

Page Navigation
1 ... 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264