Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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अनेकान्त-56/3-4
103
4 परिणमदि जेण दव्व तक्काल तम्मय त्ति पण्णत्त।
--प्रवचनसार, आचार्य कुन्दकुन्द प्रथमाधिकार गाथा-8 सम्पा. ए एन, उपाध्ये, प्रका-परमश्रुत प्रभा म, अगास, 1984
5
ण य रायदोसमोहं कुव्वादि णाणी कसाय भावं वा। समयप्पणो ण सो तेण कारगो तेसि भावाण।।
-समयसार, गाथा-280, पृ 360
6 कर्तृत्व न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् ।
अज्ञानादेव कर्ताय तदभावादकारक ।।
समयसार, कलश-194, पृ 395
7 जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु वेसिदा सुत्ते।
त जीवमजीव वा तेहिमणण्ण वियाणाहि ।। ण कदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्ज ण तेण सो आदा। उप्पादेदि ण किचि विकारणभवि तेण ण स होदि ।। कम्म पडुच्च कत्ता कत्तार तह पडुच्च कम्माणि । उप्पज्जति य णियमा सिद्धी द ण दीसदे अण्णा।।
-समयसार, गाथा-309, 310, 311
8 दविय ज उप्पज्जइ गणेहि त तेहि जाणस अणण्ण।
जह कडयादीहि दु पज्जएहिं कणय अणण्णमिह ।।
--समयसार, गाथा-308
व्याख्याता-जैन दर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ,
नई दिल्ली - 16

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