Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 243
________________ पदार्थों का त्रिलक्षणात्मक एवं त्रिपदात्मक स्वरूप और स्व-समय प्रवृत्ति -डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल हीरा काष्ट की प्रजाति का है। हीरे की काणिकाओं के घर्षण से ही उसमें मन मोहक चकाचौंध उत्पन्न होती है। इस प्रकार हीरे की चमक हीरे में से हीरे द्वारा हीरे में आती हैं। इस स्थूल ज्ञान से प्रायः सभी परिचित है। हीरे को उच्च ताप स्तर पर दग्ध करने पर वह कोयले में परिवर्तित हो जाता है। अवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया मे वही कोयला अपनी उपादान शक्ति की योग्यता से फिर काष्ट हीरा में बदल जाता है। द्रव्यों में परिवर्तन की यह प्रक्रिया अनादि काल से चली आ रही है। द्रव्य का अस्तित्व होकर भी वह अपने स्वभाव को कायम रखकर नित-नीवन रूप से बदल रहा है और बदलता रहेगा। कोई भी परिवर्तन अहेतुक नहीं है। सर्वत्र कारण-कार्य व्यवस्था प्रभावशील है, यद्यपि कभी-कभी यह परिवर्तन कौतुहल जैसा लगता है। इस परिर्वतन को किसी ने क्षण-भंगुर अवस्था-रूप देखा तो किसी ने कूटस्थ-नित्य-द्रव्य रूप में देखा। वेदानुयायीयो ने इसे ईश्वर कृत मानकर सृजक-ब्रह्मा, संरक्षक-विष्णु और संहारक-महेश के कार्य रूप देखा। अंग्रेजी भाषा में ईश्वर को गौड (GOD) कहते हैं। यह जी. ओ. और डी. अक्षर से बना है। उन्होंने जी से जेनरेटर, ओ से आपरेटर और डी से डिस्ट्रक्टर रूप में स्वीकार किया है। पदार्थ-विज्ञानियों ने वस्तु स्वरूप की इन तीन अवस्थाओं को न्यूट्रान इलेक्ट्रान एवं प्रोटान के रूप में मान्य किया। जिनेन्द्र देव प्रणीत जैन दर्शन मे द्रव्यों के सत-स्वरूप के त्रिलक्षणात्मक एवं त्रिपदात्मक रूप में इसे व्याख्यायित कर लोक की स्वचालित व्यवस्था का तार्किक-यर्थाथ आधार प्रदान किया गया है। जैनदर्शन और आत्मशोधन रूप जैन धर्म मे 'तीन' का विशिष्ट स्थान है। लगता है दर्शन और धर्म तीन-त्रिपद की धुरी पर ही घूम रहा है। तीन-लोक,

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