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अनेकान्त-56/3-4
'आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम्। कस्य किं वियदायाति, वृथा वो विषयैषिता।।'
-आचार्य गुणभद्र : आत्मानुशासन/36 अर्थात् संसार में हर प्राणी के भीतर तृष्णा का इतना बड़ा गड्ढा है कि यदि उसमें विश्व की सारी सम्पदा डाल दी जाये, तब भी वह भरेगा नहीं, खाली ही रहेगा। ऐसी स्थिति में किसे क्या देकर संतुष्ट किया जा सकता है? विषयों की आशा और तृष्णा सदैव उन्हें दुःखी ही करती रहेगी।
आचार्य अमृतचन्द्र (10वीं 11वीं शती) ने 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' में परिग्रह का लक्षण इस प्रकार दिया है
'मूच्छीलक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य। सग्रन्थो मूछावान् विनाऽपि किल शेषसङ्गेभ्यः।।'
-आचार्य अमृतचन्द्र : पुरुषार्थसिद्धयुपाय/112 अर्थात् 'यदि कोई पुरुष सर्वथा नग्न अर्थात् सब प्रकार के परिग्रहों से रहित हो, परन्तु उसके अन्तरंग में मूर्छा का सद्भाव हो, तो वह परिग्रहवान ही कहलायेगा-अपरिग्रही नहीं। क्योंकि जहाँ-जहाँ मूर्छा होती है वहाँ परिग्रह अवश्य ही होता है' ऐसा नियम है और परिग्रह के उक्त लक्षण में अव्याप्ति दोष का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।
लालसा से भरा हमारा मन जहाँ तक जाता है, वहाँ तक सब कुछ हमारा परिग्रह है। यह मन की लालसा चित्त को व्यामोह की कुंडली में कस लेती है। आचार्यों ने लालसा की इसी वृत्ति को 'मूर्छा' कहा है। जिसके मन में पर-पदार्थो के प्रति गहरी लालसा है, मूर्छा-भाव है, सारा संसार उसका परिग्रह है। जिसके मन से यह मूर्छा-भाव निकल गया है, संसार में रहते हुए भी संसार उसका नहीं है
'मूच्छिन्न-धियां सर्वं जगदेव परिग्रहः। मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवाऽपरिग्रहः ।।'