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अनेकान्त-56/3-4
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हो जाती है। सत्यान्वेषक की दृष्टि उदार होती है। समन्वय, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता ये एक ही तत्त्व के नामान्तर हैं। जन साधारण को जीव-हिंसा से बचाने के लिए जैन-दर्शन ने कायिक अहिंसा का उपदेश किया, किन्तु चिन्तकों
और विचारकों को हिंसामय प्रवृत्तियों से विरत करने के लिए मानसिक अहिंसा 'अनेकान्तवाद' का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
वस्तु तत्त्व अनेकान्तात्मक है उसे हम एक साथ पूरा नहीं कह सकते। उसके लिए सापेक्ष वर्णन शैली अपनाने की जरूरत है। जैसे कोई व्यक्ति किसी का पिता है तो वह सिर्फ पिता ही नहीं है। अन्य संदर्भो में पुत्र, पौत्र, चाचा, भतीजा, मामा, भाई आदि अनेक रिश्ते भी उसके साथ सम्भव हैं। इससे सिद्ध हुआ कि हमें जो कुछ कहना है सापेक्ष ही कहना है। ऐसा कहकर ही हम वस्तु स्थिति का सही कथन कर सकते हैं। पुत्र की अपेक्षा से ही उसे पिता कहा जा सकता है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईन्सटीन ने जिस 'थियोरी ऑफ रिलेटीविटी' (Theory of Relativity) का कथन किया है वह यही सापेक्षता का सिद्धान्त है। लेकिन वह सिर्फ भौतिक पदार्थों तक ही सीमित है। जैन दर्शन में इसे और भी व्यापक अर्थो में कहा गया है कि लोक के सारे अस्तित्व सापेक्ष हैं। उन्हें लेकर कहा गया कोई भी निरपेक्ष कथन सत्य नहीं है। __ स्याद्वाद वस्तु के परस्पर विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए परस्पर मुख्य गौणता के साथ अनेकान्तात्मक वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करता है। वस्तु तत्त्व अनेकान्तात्मक है। उसे हम अपने ज्ञान के द्वारा जान तो सकते हैं किन्तु वाणी द्वारा उसका एक साथ प्रतिपादन संभव नहीं है। शब्द की एक सीमा होती है वह एक बार में वस्तु के किसी एक धर्म का ही कथन कर सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चारितः शब्दः एकमेवार्थं गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया शब्द एक ही अर्थ का बोध कराता है। वक्ता अपने अभिप्राय को यदि एक ही वस्तु धर्म के साथ प्रकट करता है तो उससे वस्तु तत्त्व का सही निर्णय नहीं हो सकता। किन्तु स्यात् पूर्वक अपने अभिप्राय को प्रकट करने से वस्तु स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन होता है, क्योंकि ‘स्यात्'