________________
अनेकान्त-56/3-4
89
अर्थात् यदि कोई असवाधानी पूर्वक अयत्नाचारी बनकर अपनी प्रवृत्ति कर रहा है तो जीव मरे या न मरे, उसे तज्जन्य पाप से कोई बचा नहीं सकता; तथा सावधानी से प्रयत्नपूर्वक चलने वाले मनुष्य द्वारा हिसा हो जाने पर भी वह पाप का भागीदार नहीं होता। वनस्पति जगत् से लेकर मानव तक की अहिंसा की यह कहानी जैन अनुशासन की विशिष्ट देन है। विचारों में एकात्मवाद का आदर्श तो अन्यत्र भी मिल जाता है, किन्तु अनुशासन पर जितना बल जैनदर्शन में दिया गया है उतना अन्यत्र नहीं मिल सकता। अहिंसा का उत्कर्ष जैन अनुशासन की अपनी मौलिक देन है। अनेकान्तवाद : वैचारिक उदारता का परिचायक- जैन अनुशासन का मूल तत्त्व सार्वजनीन वैचारिक उदारता का ज्ञापक स्याद्वाद या अनेकान्तवाद का सिद्धान्त है। जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। अर्थात् एक ही वस्तु परस्पर विरोधी अनेक धर्मो, गणों का पिंड है। उसे समझने के लिये अनेकान्तात्मक दृष्टि को अपनाना जरूरी है। अनेकान्त का अर्थ है-अनन्त धर्मात्मक वस्तु को तत् तत् दृष्टि से स्वीकार कर वस्तु का समग्र बोध कराने वाली दृष्टि। उसके बिना वस्तु का समग्र बोध नहीं हो सकता, क्योंकि वस्तु को हम जैसी देखते हैं वस्तु वैसी ही नहीं है, अपितु उसे उन जैसी अनन्त दृष्टियों से देखे जाने की संभावना है। हमारा स्वल्प ज्ञान समग्र वस्तु को विषय नहीं बना सकता। जब तक हम वस्तु को समग्र दृष्टि से नहीं देखते तब तक हमे उसका समग्र बोध नहीं हो सकता। वस्तु के समग्र बोध के लिए अनेकान्तात्मक दृष्टि को अपनाना जरूरी है।
जब वस्तु तत्त्व ही अनेकान्तात्मक है तो उसके प्ररूपण के लिए किसी भाषा-शैली को अपनाना भी जरूरी है। स्याद्वाद उसी भाषा-शैली का नाम है। प्रायः अनेकान्त और स्याद्वाद को पर्यायवाची मान लिया जाता है। किन्तु दोनों पर्यायवाची नहीं हैं। अनेकान्त ज्ञानात्मक है और स्याद्वाद वचनात्मक; अनेकान्त प्रतिपाद्य है तो स्याद्वाद प्रतिपादक। हॉ! अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को पर्यायवाची कहा जा सकता है। जैन ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है कि 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का वाची शब्द है जो एक निश्चित दृष्टिकोण को प्रकट करता