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जैन अनुशासन के मूल तत्त्व
-कु. रेखा जैन 'अनुशासन' : निष्पत्ति और निहितार्थ- अनुशासन शब्द की निष्पत्ति - अनु + शास् + ल्युट अर्थात् अनु उपसर्ग-पूर्वक शास् धातु से ल्युट् प्रत्यय जोड़ने पर और ल्युट में से शेष रहे यु के स्थान पर कृदन्त का अन् प्रत्यय करने पर होती है। अनुशासन का अर्थ-आदेश, प्रोत्साहन, शिक्षण नियमों, विधियों का बनाना, आदेश या शिक्षा के शब्द, संज्ञाओं के लिङ्ग सम्बन्धी नियमों का निर्धारण तथा व्याख्या है। शब्दकोशकारों ने अनुशासन शब्द का बहुत व्यापक अर्थो में प्रयोग किया है। इसका प्रयोग उन्होंने आदेश, आज्ञा, उपदेश और शिक्षा के अर्थ में तो किया ही है ‘एडमिनिस्ट्रेशन' (Administration) तथा 'डिसिप्लिन' (Dicipline) के अर्थ मे भी इसका प्रयोग किया है।
राज्य समूह, समाज वर्ग या संस्था के सभी सदस्यों को अच्छी तरह से कार्य करने की विधि अथवा आचरण करने के लिये अनिवार्यता निर्देशित करने की प्रक्रिया, अनुशासन अर्थात् 'एडमिनिस्ट्रेशन' (Administration) और नियम पालन (Discipline) ही वस्तुतः 'अनुशासन' है। ___“जैन" : व्यत्पत्यर्थ और प्रयोग- 'जैन' शब्द 'जिन' से निष्पन्न होता है। 'जिन' शब्द संस्कृत की 'जि' धात् के गर्भ से जन्मा है। यह जीतने के अर्थ में प्रयुक्त है। 'जयति कर्मशत्रून इति जिनः' अर्थात् जो इन्द्रियो को तथा कर्म रूपी शत्रुओं को जीतता है वह 'जिन' है। 'जिन' कोई ईश्वरीय अवतार न होकर काम, क्रोध आदि विकारों/विभावों को जीतने वाले सामान्य मनुष्य होते हैं 'जिन' के अनुयायी 'जैन' कहलाते हैं।
जैन का अर्थ हुआ 'जिन' का अनुशरण करने वाला। जिन के चरण चिन्हों पर चलने वाला।