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अनेकान्त-56/3-4
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शान्त चित्त, चित्त संवरयुक्त हो और उपसर्ग आने पर न डिगे ऐसे ध्याता की ही शास्त्रों में प्रशंसा की गई है। इसके विपरीत जो मायाचारी हो, मुनि होकर भी जो परिग्रह धारी हो। ख्यातिलाभ पूजा के व्यापार में आसक्त हो इन्द्रियों का दास हो, विरागता को प्राप्त न हुआ-से ध्याता को ध्यान की प्राप्ति नहीं होती।
ध्येय जो अशुभ तथा शुभ पदार्थो का कारण हो उसे ध्यये कहते हैं। धवला के अनुसार जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट सात तत्व एव नौ पदार्थ ध्येय है। हमारे ध्यान करने योग्य वीतराग देव है, केवलज्ञान के द्वारा जिसने त्रिकाल-गोचर अनन्त पर्यायों से उपचित छह द्रव्यों को जान लिया है, जो अजर है, अमर है, अछेद्य है, समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है अतएव दर्पण में संक्रान्त हई मनुष्य की छाया के समान होकर भी समस्त मनुष्यों के प्रभाव से परे है, अव्यक्त है अक्षय है जिन जीवों ने अपने स्वरूप में चित्त लगाया है उनके समस्त पापों का नाश करने वाला ऐसा जिनदेव ध्यान करने योग्य है। अर्हन्त भगवान ध्येय हैं। जिसने पहले उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यान की योग्यता को प्राप्त होता है और वे भावनाएं रत्नत्रय रूप हैं।
ध्येय के भेद-शब्द, अर्थ और ज्ञान-इस तरह तीन प्रकार का ध्येय कहा जाता है। मुनि आज्ञा, अपाय, विपाक और लोक-संस्थान का आगम के अनुसार चित्त की एकाग्रता के साथ चिन्तवन करे। अध्यात्मवेत्ताओं के द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप चार प्रकार का ध्येय समस्त तथा व्यस्त दोनों रूप से ध्यान के योग्य माना गया है अथवा द्रव्य और भाव के भेद वे द्विविध है।
इस प्रकार पदार्थो का चिन्तक ही जीवों के प्रशस्त या अप्रशस्त भावों का कारण है इसलिए ध्यान के प्रकरण में यह विवेक आवश्यक है कि कौन व कैसे पदार्थ ध्यान किए जाने योग्य हैं और कौन नहीं।