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अनेकान्त-56/3-4
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बौद्धदृष्टि से ध्यान शील, समाधि और प्रज्ञा इस त्रिविध साधना पद्धति में सम्पूर्ण बौद्ध-साधना का दिग्दर्शन है। इनमें 'समाधि' के अन्तर्गत ही ध्यानयोग का स्वरूप स्पष्ट किया है। 'ध्यान' शब्द के साथ ही साथ समाधि, विमुक्ति, शमथ, भावना, विशुद्धि, विश्चयना, अधिचित्त, योग कम्मट्ठान, प्रधान, निमित्त, आरम्भण, लक्खण आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। यहां पर 'ध्यान' समाधि प्रधान पारिभाषिक शब्द है।
ध्यान का शाब्दिक अर्थ है-चिन्तन करना। यहां 'ध्यान' से तात्पर्य है अकुशल कर्मो का दहन करना। अकुशल कर्मो के दहन के लिए शील, समाधि, प्रजा एवं चार आर्य सत्य (1. दुःख, 2. दुःख समुदय, 3. दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा, 4. आर्य सत्य के अन्तर्गत अष्टान्हिका साधना मार्ग) आदि साधनों का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि अकुशल कर्मो का मूल लोभ और मोह है। इन्हीं का दहन साधना और ध्यान से किया जाता है। किन्तु यहां अकुशल कर्मो से पांच नीवरणों को लिया गया है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ध्यान मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि जिनका मानसिक तनाव अधिक बढ़ जाता है तब उस पर नियंत्रण करने के लिए ध्यान की प्रक्रिया की जाती है। ध्यान प्रक्रिया में शरीर और मन का अग्रगण्य स्थान होता है। इसीलिये आधुनिक मनोविज्ञान भी शरीर और मन के अनुसंधान में लगा हुआ है।
मानसिक प्रक्रिया में "ध्यान" की स्थिति तक पहुंचने के लिए तीन मानसिक स्तरों या प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। वे मानसिक स्तर इस प्रकार
(1) चेतन मन, (2) चेतनोन्मुख मन (3) अचेतन मन।
इन 'मन' के तीन स्तरों को फ्रायड ने नाट्यशाला के समान बताया है। नाट्यशाला की रंगभूमि समान ‘चेतन मन', नाट्यशाला की सजावट समान