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अनेकान्त-56/3-4
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(3) अशरण-अनुप्रेक्षा-अशरण दशा का चिन्तन करना। संसार में जो वस्त नित्य, अनित्य, क्षणिक और नाशवान हैं वे सभी अशरण-रूप हैं। जन्म जरा और मरण, आधि-व्याधि-उपाधि से पीड़ित जीवों का संसार में कोई शरण नहीं है। शरण रूप यदि कोई है तो एक मात्र जिनेन्द्र का वचन ही।
(4) संसार-अनुप्रेक्षा-चतुर्गति में परिभ्रमण कराने वाले जन्म-मरण रूप चक्र को संसार कहते हैं। जीव इस संसार में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पंच संसार चक्र में मिथ्यातवादि के तीव्रोदय से दुःखित होकर भ्रमण करता है। अतः संसार परिभ्रमण का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है।
शुक्लध्यान के भेद चेतना की स्वाभाविक (उपाधि-रहित) परिणति को 'शुक्लध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं
(1) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार (सविचारी)-इनमें तीन शब्द आये हुए हैं जिनका अर्थ है- 'पृथक्त्व'-भेद, 'वितर्क'-विशेष तर्कणा (द्वादशागश्रुत), और 'विचार'-'वि'-विशेष रूप से, 'चार' चलना यानी अर्थ-व्यंजना (शब्द) और योग (मन-वचन-काय) में संक्रान्ति (बदलना) करना ही 'विचार' है।
(2) एकत्व-वितर्क-अविचार (अविचारी)-इसमें चित्त की स्थिति वायुरहित दीपक की लौ की भांति होती है। जब एक द्रव्य या किसी एक पर्याय का अभेद-दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्व-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द, अर्थ एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, तीन योग में से कोई भी एक ही योग ध्येय रूप में होता है। एक ही ध्येय होने के कारण अर्थ, व्यंजना और योग में एकात्मकता रहती है। द्रव्य-गुण-पर्याय में मेरूवत निश्चल अवस्थित चित्त वाले चौदह, दस और नौ पूर्वधारी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव ही अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्यान करते हैं। वे असंख्यात-असंख्यात गुणश्रेणिक्रम से कर्मस्कन्धों का घात करते हुए ज्ञानावरण-दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों को केवलज्ञान के प्राप्त होने के बाद अन्तर्मुहूर्त में ही युगपद् नाश करते हैं। तब जीव शुद्ध निर्मल क्षायिक