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अनेकान्त-56/3-4
कार्मण शरीर का अनादि सम्बंध है-उनके सिद्धान्त में पूर्व में ही आत्यन्तिकी शुद्धि को धारण करने वाले जीव के नूतन शरीर का सम्बन्ध ही नहीं हो सकेगा-क्योंकि शरीर के सम्बन्ध का कोई निमित्त ही नहीं है।
यदि एकान्त से निर्निमित्तक आदि सम्बंध माना जायेगा तो मुक्तात्मा के अभाव का प्रसंग आयेगा-क्योंकि जैसे आदि शरीर अकस्मात् सम्बंध को प्राप्त होता है वैसे ही मुक्तात्मा के भी आकस्मिक शरीर सम्बंध होगा इसलिए मुक्तात्मा के अभाव का प्रसंग आयेगा।
तथा एकान्त से सर्वथा तैजस, कार्मण शरीर को अनादि मानेंगे तो भी अनिर्मोक्ष का प्रसंग आयेगा क्योंकि जो अनादि है-उसका आकाश के समान अन्त भी नहीं होगा, कार्य-कारण के सम्बध का अभाव होने से मोक्ष का अभाव हो जाता है। यदि कहो कि अनादि बीज वृक्ष की सन्तान का अग्नि से सम्बन्ध होने पर अन्त देखा जाता है उसी प्रकार तैजस कार्मण शरीर का भी अन्त हो जायेगा-तब तो एकान्त से अनादित्व का अभाव होगा। बीज वृक्ष विशेषपेक्षया अनादिमान् है अतः जैस बीज-वृक्ष की सन्तति अग्नि से नष्ट हो जाती है-वैसे ही कार्मण शरीर भी ध्यान अग्नि से नष्ट हो जाता है इसलिए साधूक्त है कि किसी प्रकार से वे अनादि हैं और कथंचित् सादि हैं।' 2. मूर्त कर्म का अमूर्तिक आत्मा से बंध में अनेकान्त - जैन दर्शन में कर्म को पौद्गालिक माना है। मूर्त कर्मो का अमूर्त आत्मा से बंध कैसे होता है इस प्रश्न का समाधान जैनाचार्यों ने अनेकान्तात्मक शैली में दिया है। जैन तत्व व्यवस्था में संसारी आत्मा को आकाश की तरह सर्वथा अमूर्त नहीं माना गया है। उसे अनादि बन्धन बद्ध होने के कारण मूर्तिक भी माना गया है। बंध पर्याय में एकत्व होने के कारण आत्मा को मूर्तिक मानकर भी वह अपने ज्ञान आदि स्वभाव का परित्याग नहीं करता, इस अपेक्षा से उसे अमूर्तिक कहा गया है। इसी कारण अनादि बन्धन बद्धता होने से उसका मूर्त कर्मो के साथ बंध हो जाता है।
जिस प्रकार घृत मूलतः दूध में उत्पन्न होता है, परन्तु एक बार घी बन