Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 186
________________ अनेकान्त-56/3-4 51 करके मन-वचन-काय से रात्रिभोजन का परिहार करना चाहिए। आचार्य जिनसेन छठी प्रतिमा को “अहःस्त्रीसङ्गवर्जनम्" कहकर, आचार्य सोमदेव ने "दिवामैथुनत्याग" एवं “दिवामैथुनविरत" कहकर ही उल्लिखित किया है। अमितगति श्रावकाचार तथा संस्कृत भावसंग्रह में इस प्रतिमाधारी को दिवा ब्रह्मचारी कहा गया है। लाटीसंहिता में छठी प्रतिमाधारी के लिए रोगादि की शान्ति के लिए रात में गन्ध-माल्य, विलेपन एव तैलाभ्यङ्ग आदि का निषेध किय गया है तथा पं. दौलतराम ने छठी प्रतिमाधारी के लिए रात्रि में गमनागमन तथा अन्य आरंभ कार्यो के करने का निषेध किया है। छठी प्रतिमा में प्रयुक्त भुक्ति शब्द भोजन एवं सेवन दोनों अर्थो में प्रचलित होने के कारण ही कुछ आचार्यों ने रात्रि में भोजनत्याग तथा कुछ ने दिवा मैथुन त्याग के रूप में उसका विवेचन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, आ. समन्तभद्र आदि ने भुक्ति का भोजन अर्थ मानकर ही इस प्रतिमा का वर्णन किया है, जबकि वसुनन्दि एवं पश्चाद्वर्ती विद्वानों ने दिवामैथुनत्याग के रूप में छठी प्रतिमा का वर्णन किया है। 7. ब्रह्मचर्य प्रतिमा - समन्तभद्राचार्य के अनुसार जो पुरुष मल बीज, मल का आधार, मल को वहाने वाला, दुर्गन्धयुक्त एवं बीभत्स मानकर स्त्री सेवन से पूर्ण विराम ले लेता है, वह ब्रह्मचारी श्रावक हैं। इस भूमिका में नैष्ठिक श्रावक मन, वचन, काय से स्त्रीमात्र के संसर्ग का त्याग कर देता है तथा पूर्ण सादगी के साथ जीवन बिताता है। वह गृहस्थी के कार्यो में प्रायः उदासीन हो जाता है। 8. आरंभविरति प्रतिमा - जब सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा मे भोगोपभोग के प्रधान साधन तथा सचित्त भोजन के पश्चात् वह स्त्री का सर्वथा परित्याग कर देता है। तब धन स्पृहा न रहने से वह आठवीं प्रतिमा में असि, मषि, कृषि, वाणिज्य आदि सभी आरंभों का त्याग करके आरंभ विरत नैष्ठिक श्रावक कहलाने लगता है। आचार्य अकलंकदेव ने प्राणघात आदि के लिए कार्य प्रारंभ कर देने को आरंभ कहा है। समन्तभद्राचार्य का कहना है कि आरंभविनिवृत्त

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