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अनेकान्त-56/3-4
ज्ञान किया जाता है या प्रमिति मात्र प्रमाण है। तिलोय पण्णत्ति में स्पष्ट रूप में कह दिया गया है- ‘णाणं होदि पमाणं'' अर्थात् ज्ञान ही प्रमाण है। इनमें भी सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है मिथ्याज्ञान नहीं। श्लोक वार्तिक में कहा है
'मिथ्याज्ञानं प्रमाणं न सम्यगित्यधिकारतः।
यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता।।10 इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है। अन्य आचार्यो का चिन्तन इसी केन्द्रविन्दु के आस-पास घूमता रहा है। आचार्य समन्तभद्र। ने स्वपरावभासी ज्ञान को प्रमाण बताया है। न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन2 ने इसमें बाधारहित विशेषण लगाया। अर्थात् स्वपरावभासी बाधारहित ज्ञान को प्रमाण बतलाया। जैन न्याय के प्रस्थापक अकलंकदेव ने कहीं तो स्वपरावभासी व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण' बतलाया है और कहीं 'अनधिगतार्थ अविसंवादि ज्ञान' को प्रमाण बतलाया है। आचार्य विद्यानंद ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण बतलाकर 'स्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञान को सम्यग्ज्ञान बतलाया है। उन्होंने 'अनधिगत' पद को छोड़ दिया है। आचार्य माणिक्यदेव ने स्व और अपूर्व अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण बताकर एक प्रकार से आचार्य समन्तभद्र और अकलंक देव का ही समर्थन किया है। __प्रमाण के स्वरूप का विचार करते समय दार्शनिक परम्परा में यह भी विचार किया जाता है कि प्रमाण में जो प्रामाण्य है वह कैसे उत्पन्न होता है? और यह कैसे पता चलता है कि अमुक ज्ञान प्रमाण है और अमुक ज्ञान अप्रमाण है? अर्थात् प्रामाण्य की उत्पत्ति और ज्ञप्ति स्वतः होती है या परतः। जैनदर्शन के अनुसार प्रामाण्य स्वतः व परतः दोनों प्रकार से होता है। श्लोक वार्तिक में कहा गया है
तत्राश्यासात्प्रमाणत्वं निश्चितं स्वतः एव नः। अनभ्यासे तु परतः इत्याहुः।” अर्थात् अभ्यास दशा में ज्ञानस्वरूप का निर्णय करते समय ही युगपत् उसके प्रमाणपन का भी निर्णय कर लिया जाता है, परन्तु अनभ्यासदशा में तो दूसरे कारणों से (परतः) ही प्रमाणपना जाना जाता है।